सोमवार, 16 मई 2016

पूजा खरे के विचार 'कांच के शामियाने' पर

पूजा खरे एक छात्रा हैं...प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही हैं ,पढने लिखने का खूब शौक रखती हैं .
कांच के शामियाने पर उन्होंने अपने विचार रखे

इंसान,पेड़--पौधे,जीव--जंतु ये सब जितने भी होते है । वो जिस वातावरण में जन्म लेते है उसी वातावरण में प्रफुल्लित रह पाते है। किसी अन्य वातावरण में जीवित भी नही रह पाते । अगर इन जीव-जन्तुओं को कहीँ और रखना होता है तो पहले वहां वैसा ही वातावरण बनाना पड़ता है। लेकिन प्रकृति की अनुपम कृति स्त्री वो जन्म कहीं और लेती है विकसित कहीं और होती है और फिर अचानक उन्हें उनकी ही जड़ से उखाड़ कर कहीँ और रोपते है और ये कहीं और होता है ससुराल। सबसे मजेदार बात है किसी को पता ही नही होता की स्त्री का अपना घर कौन सा है। मायके में माँ कहती है यहां लाड उठवा लो ससुराल में ये सब नही चलेगा। ससुराल में सब कहते है अपने घर क्या सीखी। समझ में ही नही आता कौन सा घर उनका अपना होता है।
इसी धारणा को हमारे सम्मुख रखता हुआ एक उपन्यास है"काँच के शामियाने"। रश्मि रविजा जी का ये उपन्यास नारी की मार्मिक दशा के साथ साथ उसकी असीम योग्यता,ताकत को भी बताता है। उपन्यास की मुख्य पात्र जया एक साधारण लड़की है। जिसके सपने बस इतने है की उसे अपनी विधवा माँ की सेवा करनी है। लेकिन पुरुष समाज के द्योतक राजीव जो कि एक pcs (शिक्षित समाज)अधिकारी है
उसका अहम हावी हो जाता है और वो अपने अहम के लिए जया से शादी कर लेता है। फिर यही से जया की पीड़ा शुरू होती है। राजीव जया को मात्र अपना गुलाम समझता है। वो जया की सहन शक्ति से परिचित नही रहता इसी कारण बस उसे पीड़ा देता है। अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने में जया के तमाम सपने , इच्छाएं रौंदता है। और हमेशा से ऐसा होता रहा है की लड़कियां भी शादी होने के बाद खुद को पराया समझने लगती है पता नही क्यों पर ऐसी मानसिकता हो जाती है जिन बहनो से कपड़े बांटती है उनसे दुःख नही बाँट पाती। जो भाई हर राखी पर रक्षा करने का वायदा करता है वो भी शादी के बाद पराया कर देता है। माँ पापा चाहते है की दामाद मेरी बेटी को गुलाम बना कर रखे। बस थोडा खुश गुलाम बनाये और लड़कियां भी जीवन भर गुलामी ढोने को तैयार रहती है। जैसा की जया ने किया तमाम प्रताड़ना उलाहना के बाद भी वो राजीव के साथ रहती है। राजिव के तीन बच्चों की माँ बनती है और उन्ही बच्चों में अपनी नई दुनिया बसा लेती है। रूद्र,सौम्याऔर काव्या को जीवन का आधार बना कर उनमे खुशियाँ ढूंढती हैं लेकिन राजीव का अहम् ये भी बर्दाश्त नही कर पाता उसके प्रताड़ित करने के तरीके बदल जाते है । बच्चों को भी कष्ट देने लगता है। तब जाकर जया का धैर्य समाप्त हो जाता है वो मरना चाहती है क्योकि सबके सहने की सीमा होती है। जया की सीमा खत्म हो गयी थी। जया ने अपना कष्ट सह लिया था लेकिन बच्चों का नही सह पाती है। लेकिन उसकी बिटिया उसे जीवन में हर लड़ाई का अदम्य साहस देती है।
जिससे जया की संघर्ष यात्रा पर अपने बच्चों को निकल पड़ती है। अंत में विजय भी जया की ही होती है। जया के बच्चे ias,मैनेजर,और डॉ बनते है। जया का संघर्ष और विजय की अद्वितीय कहानी है| "कांच के शामियाने"। जब शुरू में नाम सुना था तो थोडा अजीब लगा की "कांच के शामियाने" के मायने क्या होते है। जब पढ़ा तो लगा की सच लड़कियों का कोई घर नही होता । उनके लिए हर घर चाहे ससुराल हो या मायका जहाँ वो अपने सपने बुनती है। कांच का ही तो बना होता है। जिसे जब चाहे कोई भी तोड़ दे और इस उपन्यास की सबसे सच्ची बात यही है की स्त्री जब माँ बनती है तो वो बस माँ बन जाती है। फिर उसे स्वयं के अंदर अद्भुत ऊर्जा महसूस होती है जिससे वो हर स्थिति से निपट लेती है जया ने भी ऐसा ही किया। माँ बनकर वो बस माँ बन गयी।

समाज की कमजोर स्त्री को प्रेरित करने की दृष्टि से बहुत ही खूबसूरत उपन्यास है। हर रिश्ते की सच्चाई को सही और सटीक ढंग से बताया है रश्मि दीदी ने। जो जया के साथ हुआ वही अगर जया की बड़ी बहन रीता के पति की बहन के साथ ऐसा कुछ होता तो क्या वो बस इतने से ही संतोष कर लेते। या भाइयों की बेटियों के साथ ऐसा होता तो ?? या रिश्ते खुशियों में ही साथ देते है?? या माँ भी अपनी बेटी की पीड़ा नही समझ पाती??ऐसे कई सवाल मन को झंकझोरते है।। नारी शक्ति के साथ साथ नारी शन शक्ति और मानव समाज का आईना है "रश्मि रविजा" जी का शानदार उपन्यास"कांच के शामियाने"।।

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