शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

कई सवाल उठाती फिल्म, हैदर

जब एक ईमानदार कोशिश की जाती है तो वह लोगों तक पहुँचती है . विशाल भारद्वाज ने समीक्षकों,आलोचकों, दर्शकों किसी को ध्यान में रख कर नहीं बल्कि सिर्फ अपने मन की कही है. हाउसफुल थियेटर, हर उम्र के दर्शक और गहन शान्ति . लोग स्तब्ध होकर परदे पर कश्मीर के परिदृश्य देख रहे थे .निकलते वक़्त दो युवाओं को कहते सुना, 'इतनी पावरफुल मूवी है ,एक बार और देखेंगे'
'हैदर' जैसे कश्मीर का प्रतीक, कवि ह्रदय ,संवेदनशील ,साहित्य प्रेमी. जब उसके सगे ही निहित स्वार्थ के लिए उसके अज़ीज़ पिता को गायब करवा देते हैं तो उन्हें वह पागलों की तरह ढूंढता है.पर इस क्रम में वह समझ नहीं पाता किसका विश्वास करे ,अपने सगों का या दुश्मनों के नुमाइंदों का .दोनों ही उसे कभी सही और कभी गलत लगते हैं और भयंकर खून खराबे के बाद वह विजयी तो होता है, पर उसके पास कुछ नहीं बचता .सब कुछ तबाह हो गया होता है.
उसकी माँ गजाला का भी कश्मीर सा ही हाल है .जहर ख़ूबसूरत हैं ,पर उनके अपने, उनकी परवाह नहीं करते ,अपने आप में मशगूल रहते हैं . इसका फायदा उठा आस्तीन का सांप ,उन्हें प्यार का भुलावा देता है. वे उसकी तरफ आकृष्ट तो होती हैं, पर जब असलियत पता चलती है तो उसके साथ खुद को भी खाक कर डालती हैं.

फिल्म में कश्मीर के पुलिस वाले को करप्ट ,षड्यंत्रकारी दिखाया गया है . पर हर फिल्म में,पुलिसवालों का यही रूप दिखाया जाता है और किसी को आपत्ति नहीं होती . सेना , शक के बिना पर लोगों को उठा ले जाती है पर यह भी एक कटु सत्य है और सेना की मजबूरी भी और उसके के लिए अनिवार्य भी . जब एक डॉक्टर एक आतंकवादी का इलाज़ करता है तो वो भी गलत नहीं होता,पत्नी के सवाल करने पर कि वो किसकी तरफ हैं ,सहजता से जबाब देता है ,"ज़िन्दगी की तरफ " पता चलने पर सेना, उनके इस कृत्य के लिए उन्हें पकड़ कर ले जाती है ,गलत वह भी नहीं है. बेटा अपने पिता की तस्वीर लेकर कैम्प में ढूंढता फिरता है, बहुत सारे लोग अपने प्रिय की तस्वीरें लेकर उन्हें ढूंढ रहे हैं, पोस्टर लगाते हैं...प्रदर्शन करते हैं...गलत वे भी नहीं हैं. यह सब जो कश्मीर में हो रहा है ...जहाँ दिन पर ताले और रातों पर पहरे हैं ...कर्फ्यू में डूबा शहर है, इस कडवे सच को परदे पर देखना मुश्किल होता है...पर सच तो सच है.
एक कश्मीरी बुजुर्ग गुमराह लोगों को समझाते हैं, " बन्दूक के जोर पर कभी आज़ादी नहीं मिलती .आखिर भारत को आजादी एक 'लाठीवाले' ने ही दिलवाई .इंतकाम के बदले इंतकाम लेकर आज़ादी नहीं हासिल की जा सकती . " एक आर्मी ऑफिसर से जब पूछा जाता है ,'इतने लोग कश्मीर से disappear हो रहे हैं' तो वे जबाब देते हैं ,'कई लाख कश्मीरी पंडित भी तो यहाँ से गायब हो गए...उनका क्या ??
फिल्म बहुत सारे सवाल उठाती है, जिनका जबाब नहीं मिलता . फिल्म देखकर निराशा भी घेरती है...कोई उम्मीद नज़र नहीं आती . कश्मीर के अन्दर गहरे तक दुश्मनों की पैठ है...आर्मी का काम बहुत बहुत मुश्किल है . कब्र खोदने वाले ,बूढ़े लोग जिनपर शक होना मुश्किल है, वे भी दुश्मनों से मिले हुए हैं .
विशाल भारद्वाज ने हर किरदार के लिए बढ़िया अभिनेता चुने हैं और उनसे बेहतरीन काम लिया है. शाहिद, तब्बू, के के मेनन, इरफ़ान, नरेंद्र झा...सब मंजे हुए अभिनेता हैं और अपने पात्रों को जैसे जिया है,उन्होंने . श्रद्धा कपूर का महत्वहीन सा रोल भी ,नज़रों से नहीं चूकता .एक कश्मीरी लड़की सा नाजुक शफ्फाक  चेहरा ,पर अन्दर से मजबूत .अपने प्यार के लिए पिता, भाई सबसे लड़ जाती है पर ज़िन्दगी की विडम्बनाओं से हार जाती है. इस फिल्म के विलेन भी आम से दिखते हैं...वात्सल्य से भरे पिता, प्रेम में डूबा आशिक पर अन्दर से कुटिल .

कहानी की थीम शेक्सपियर की 'हेमलेट' से ली गयी है, उस नाटक को बड़ी कुशलता से कश्मीर की पृष्ठभूमि में ढाल दिया गया है. पूरी फिल्म में माँ-बेटे के रिश्ते के उतार चढ़ाव नज़र आते हैं . पर कहीं भीतर एक गहरा जुड़ाव है. पिता से बेतरह प्यार करने वाला हैदर ,माँ से नाराज़ होतेहुये भी उनकी कोई पुकार नहीं टालता. माँ भी अंत में पत्नी और प्रेमिका का आवरण उतार सिर्फ माँ रह जाती है.

एकाध चीजें खटकी भीं रोमांटिक गाना तब आता है,जब दर्शक पूरी तरह कहानी में खो चुके होते हैं...पात्रों का तनाव  उनपर तारी हो चुका होता है...उस वक़्त वह खूबसूरत गीत और उसका फिल्मांकन देखने के मूड में नहीं होते. हीरो-हिरोइन के मुलाक़ात के शुरुआत के दृश्य में यह गीत होता तो शायद एन्जॉय कर पाते. फिल्म का क्लाइमेक्स भी बहुत खिंचा हुआ और बोझिल सा लगा .
फिल्म शुरू होते ही परदे पर लिखा होता है Srinagar India ऐसा लिखने की वजह क्या हो सकती है??...Mumbai India , Delhi India तो नहीं लिखा जाता ...शायद इस बात पर जोर दिया गया हो कि अब बताना पड़ता है कि श्रीनगर ,भारत का ही हिस्सा है...और इस से बढ़कर त्रासदी और क्या.

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