शनिवार, 14 सितंबर 2013

मेरा साथी -शिक्षक-पथप्रदर्शक : 'धर्मयुग'

शिक्षक दिवस पर जो पोस्ट लिखी थी, उसके बाद ही यह पोस्ट लिखनी थी पर गणेशोत्सव की तैयारियों ने इतना व्यस्त रखा कि देर होती गयी और संयोग ऐसा है कि आज हिंदी दिवस के दिन लिखने का मौक़ा मिल रहा है . वैसे तो किसी ख़ास को याद करने के लिए कोई ख़ास दिन निश्चित नहीं होना चाहिए . पर ये दिन उनकी यादों में डूबने उतराने का बहाना तो दे ही देते हैं.

यूँ तो हिन्दी हमारी मातृभाषा है ही...पर हिंदी से प्यार करना उसने सिखाया जिसे मैं बेझिझक अपना असली गुरु कह सकती हूँ. प्राइमरी से लेकर एम. ए .तक कई शिक्षक /शिक्षिकाओं ने अपनी शिक्षा से हमारे व्यक्तिव निर्माण में सहयोग दिया  पर एक शिक्षक -साथी- पथप्रदर्शक जो हमेशा साथ रहा वो था "धर्मयुग " .  साहित्य से प्रेम, खेल -फिल्मों में रूचि , मेरी सोच , मेरा व्यक्तित्व ,मेरा लेखन सब इसी पत्रिका की देन है.

 वाक्यों को जोड़ जोड़ कर पढना शुरू किया और तब से ही शायद 'धर्मयुग' पढना भी शुरू कर दिया . शुरुआत तो आबिद सुरती के 'कार्टून कोना ढब्बू जी' से ही हुई होगी . फिर बाल-जगत, क्रीड़ा-जगत , फिल्म -जगत से गुजरते हुए ,राजनीति पर गूढ़ आलेख और कहानियाँ , धारावाहिक उपन्यास भी पढने लगी. धर्मयुग साप्ताहिक पत्रिका थी और काफी बड़े आकार की . आजकल तो कोई भी पत्रिका इतने बड़े आकार की  नहीं है पर उन दिनों धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और Illustrated Weekly  बहुत बड़े आकार  में आते थे .जाहिर है अन्दर पढने की सामग्री भी बहुतायत में होती थी. धर्मयुग के शुरू में ही दो पन्नों में होतीं थीं  "आँखों देखी  ख़बरें " छोटे-छोटे चित्रों सहित ढेर सारी ख़बरें लिखी होती थीं. देश विदेश की कोई भी खबर नहीं छूटती थी .और धर्मयुग के पाठक बिलकुल अपडेट रहते थे .

धर्मयुग में हर सप्ताह एक कहानी और धारावाहिक उपन्यास की एक क़िस्त  छपती  थी . 'संजीव', प्रियंवद , गोविन्द मिश्र ,मिथिलेश्वर , मंजूर एहतेशाम, मेहरुन्निसा परवेज़  आज कथा जगत में ये नाम एक सशक्त हस्ताक्षर हैं .इन सबकी पहली कहानी (या प्रथम  कहानियों में से )धर्मयुग में ही छपी थीं . सूर्यबाला. मालती जोशी, पानू खोलिया, स्वदेश दीपक ,शिवानी , स्नेह मोहनीश, चित्र मुद्गल इनकी कहानियां तो नियमित ही पढने को मिलतीं.और मैं इनके लेखन की जबरदस्त फैन थी. कुछ कहानियाँ समझ में नहीं आतीं . फिर भी मैं चार बार पढ़ जाती . कमलेश्वर , मन्नू भंडारी , जैसे सशक्त कथाकार भी लगातार धर्मयुग में लिखते थे . एक बार स्कूल की लाइब्रेरी के रख रखाव का काम हम कुछ लड़कियों को सौंपा गया था .वहाँ मुझे धर्मयुग की बहुत  सारी पुरानी प्रतियां मिल गयीं . {सहेलियां काम करतीं  और मैं उनकी डांट खाते हुए चुपके चुपके धर्मयुग पढ़ा करती  :)}उनमें ही मन्नू भंडारी के मशहूर उपन्यास "आपका बंटी " की कुछ किस्तें पढ़ीं . कमलेश्वर की  "आगामी अतीत " (अगर मुझे नाम ठीक याद है ) भी पढ़ी जिस कहानी पर गुलज़ार ने एक बेहतरीन फिल्म मौसम बनायी . 'कामना चंद्रा' की कहानी  जिसपर फिल्म  'चांदनी' बनी .कुछ और कहानियों के साथ इसके  पन्ने  भी अब तक मेरे पास सहेजे हुए हैं . इतनी उच्च कोटि की कहानियाँ होती थी कि जीवन में कुछ सीख देकर ही जातीं .
 

नयी कविताओं का दौर था और धर्मयुग में भी ज्यादातर वैसी कवितायें ही छपतीं पर हमें ज्यादा समझ नहीं आतीं. सूर्यभानु गुप्त की गज़लें और कैलाश गौतम की कवितायें ही पसंद आतीं .  एक कविता थी ,'भाभी  की  चिट्ठी देवर के नाम " जिसमे एक भाभी गाँव  का सारा हाल शहर में बसे देवर को चिट्ठी में लिखती है. "पड़ोस की गाय ने बछिया दी है.... मन करता चूल्हे की माटी खाने को " ऐसा ही बहुत कुछ था ..बड़ी अच्छी कविता थी और बहुत चर्चा हुई थी ,उसकी .शायद नेट पर मिल जाए . एक कविता 'राखी का ऋण ' जिसके रचयिता का नाम नहीं याद पर मैंने अपने नोटबुक में नोट करके रखी थी..यहाँ पोस्ट भी की थी .
  
क्रीड़ा जगत में क्रिकेट, टेनिस, बैडमिन्टन, हॉकी  से सम्बंधित आलेख होते . पर ज्यादा बोलबाला क्रिकेट का ही रहता . जब भारत में कोई टेस्ट सीरीज खेली जाती तो बाकायदा क्रिकेट विशेषांक ही निकलता था और तब जरूर धर्मयुग की अतिरिक्त प्रतियां छपती होंगी क्यूंकि बहुत सारे लोग जो नियमित धर्मयुग नहीं लेते ,वे भी वो अंक जरूर खरीदते . दुसरे खेलों का तब भी वही हाल था जो अब है .पर जब प्रकाश पादुकोण ने 'विश्व कप जीता था तो मुखपृष्ठ पर कप के साथ प्रकाश पादुकोण और उनकी पत्नी  'उज्जला करकल ' (जो तब मंगेतर ही थीं ) की  बड़ी सी तस्वीर छपी थी . एक और तस्वीर याद आती है 'क्रिस एवर्ट ' और 'विजय अमृतराज' की .विजय अमृतराज ने क्रिस के कंधे पर हाथ रखा हुआ था . क्रिस के उजले गोरे कंधे पर अमृतराज के गहरे रंग के हाथ बहुत ही अजीब से लग रहे थे . उस वक्त मैं बहुत ही छोटी थी फिर भी ध्यान से उस फोटो को देख रही थी  और सोच रही थी, इतने गहरे रंग का व्यक्ति इतना हैंडसम कैसे हो सकता है ? (शायद उसे पहला क्रश कह सकते हैं ..दूसरा भी जरूर हुआ होगा..ऐसे ही कुछ लिखते वक़्त ख्याल आ जायेगा :)}
 

'हास्य व्यंग्य ' का भी एक पेज होता था .जिसमे अक्सर शरद जोशी के आलेख निकलते और शायद धर्मयुग की वजह से ही हास्य के पसंद का स्तर इतना अलग हो गया कि अब कोई कॉमेडी फिल्म -शो पसंद ही नहीं आते . होली पर हास्य कवियों की कुछ रोचक परिचर्चाएं तो अब तक याद हैं . कुछ साल पहले शरद जोशी की बिटिया 'नेहा शरद ' एक मॉल में मिल गयीं . मैंने उनसे 'शरद जोशी' उनकी पत्नी 'इरफाना शरद' की भी ढेर सारी बातें कीं (धर्मयुग में पढ़ी  हुई ही ) वे भी सुनकर बहुत खुश हुईं कि मुझे इतना कुछ याद है.
 

राजनीति परक आलेखों में कम रूचि थी पर पढ़ जरूर लेती थी. और अब लगता है धर्मयुग के आलेखों का टोन शायद समाजवादी होता था . वामपंथी या दक्षिणपंथी नहीं .शायद इसीलिए मेरा रुझान भी समाजवाद की तरफ ही है. पर ज्यादा गहरे मैं तब भी नहीं जाती थी  .आज भी दूर ही रहती हूँ . 

 

 दो पन्ने फिल्म जगत के भी होते थे . फ़िल्मी कलाकारों के साक्षात्कार या उनपर आलेख  होते थे. पर कभी भी कोई 'चीप गॉसिप' नहीं पढने को मिलती. नयी रिलीज़ हुई फिल्मों की समीक्षाएं भी होती थी (और उन्हें पढ़कर जब मैं हॉस्टल  जाती तो सहेलियों पर डींगें मारती कि ये फ़िल्में मैंने देख ली हैं )
 

नारी-जगत में पकवानों की विधि , हस्तकला ,नारी सम्बन्धी आलेख, परिचर्चाएं हुआ करती थीं. धर्मयुग में ही देखा था , चाय की छन्नी के ऊपर कपडा लगाकर एक गुडिया का चेहरा और छन्नी की डंडी पर कुछ कटे कागजों का नोटपैड जैसा बनाने की  विधि . मेरे  बेटे को जब स्कूल में  Best out of waste  बनाना था तो मैंने उसे यही बनाना सिखाया .स्कूल के प्रदर्शनी में भी उसे रखा गया था और बहुत पसंद आयी थी लोगों को .

धर्मयुग एक ऐसी पत्रिका थी, जिसमे सबकी रूचि का कुछ न कुछ होता था . और मेरी रूचि तो हर विषय में थी . अब किसी विषय की master तो मैं अपनी वजह से नहीं बन सकी  पर  jack of all trades  निश्चय ही धर्मयुग  ने बना दिया .

कई बड़े लेखकों का कहना था , धर्मयुग के सम्पादक 'धर्मवीर भारती ' अपना ज्यादा समय लेखन को नहीं दे पाए,उन्होंने  अपना सारा समय धर्मयुग के सम्पादन में लगा दिया. पर उनके सफल सम्पादन ने 'धर्मयुग' को इतनी उच्च  कोटि की पत्रिका बना दिया था कि  मेरे जैसे कितने ही लोगों का मार्गदर्शन  उनके व्यक्तिव निर्माण में धमर्युग ने अपना सहयोग दिया . प्रोफेशनली जो लोग धर्मयुग की वजह से आगे आये , 'उदयन शर्मा, सुरेन्द्र प्रताप सिंह ' इनलोगों को तो सारी दुनिया जानती है पर आम लोगों के जीवन में भी इस पत्रिका के नियमित पठन ने महत्वपूर्ण  बदलाव लाये हैं. मेरी बदकिस्मती है कि मैंने धर्मयुग के युवा जगत में लिखना शुरू  किया तब  तक टेलीविजन का दौर शुरू हो चुका था .लोगों की पढने की आदतें छूटने  लगीं और मनोरंजन के लिए लोग टी.वी. का सहारा लेने लगे और मेरी प्रिय पत्रिका बंद हो गयी . मुझे खुद से ज्यादा मेरे बाद वाली पीढ़ियों के लिए अफसोस है कि वे एक इतनी अच्छी पत्रिका से वंचित रह गए .

अगर मेरे जीवन में धर्मयुग नहीं होता तो मेरा व्यक्तित्व अच्छा होता या बुरा ये नहीं पता पर अलग होता यह तो निश्चित है .

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

जीवन को एक नयी दिशा देता 'हेड सर' का वह निर्णय



मेरा पहला स्कूल, सेन्ट्रल एकेडमी रांची






आज फेसबुक पर सबको अपने शिक्षकों को याद करते देख हमें भी अपनी सारी शिक्षिकाएं/ शिक्षक  सिरे से याद हो आये. सबसे पहले तो के.जी. की क्लास टीचर 'मिस डे ' का ही ख्याल आता है. ,उनका गोल चेहरा और उसके ऊपर चेहरे जितना ही बड़ा और गोल जूडा याद आता है और पूरी क्लास में हर थोड़ी देर बाद उनकी गूंजती आवाज़ , 'फिंगर ऑन योर लिप्स " .इस से आगे कुछ याद नहीं

उसके बाद पिताजी का ट्रांसफर एक छोटे से शहर में हुआ था और हमारा दाखिला , एक आनंदमार्गी स्कूल में हुआ . जिसकी पढाई तो बहुत अच्छी थी ही, साथ ही रोज सुबह  छोटे छोटे बच्चों से मेडिटेशन करवाया जाता .(वह स्कूल पांचवीं कक्षा तक ही था )  हम सब आँखें बंद कर के बैठते और जब आँखें खोलते तो पाते सबकी दिशा बदल गयी है . स्कूल के दाढ़ी वाले प्रिंसिपल रोज कुछ अच्छी बातें सिखाते .  रोज सुबह उठकर माता-पिता को प्रणाम करने पर जोर देते . कुछ शैतान बच्चों पर जिनपर उन्हें भरोसा नहीं होता . उनके घर पर प्यून को भेज देते कि घर से पूछकर आओ, उसने प्रणाम किया है या नहीं. (छोटी जगह थी..छोटा स्कूल, जहां यह सब संभव था ). साथ ही, मांसाहार की बुराइयां बताकर शाकाहार पर जोर दिया जाता . शायद मेरे कच्चे मस्तिष्क पर उनकी बातों का कुछ ऐसा प्रभाव पडा कि मैं आज तक विशुद्ध शाकाहारी हूँ. (हालांकि मेरी चाची कहती हैं कि तीन साल की उम्र से ही मुझे नॉनवेज पसंद नहीं था ) जबकि मेरे घर में सब नॉनवेज के शौक़ीन थे और मुझे नॉनवेज खिलाने की बहुत कोशिश की जाती थी . इस वजह से मैंने न जाने घर की कितनी प्लेटें तोड़ी हैं .तब चीनी मिटटी के बर्तन में ही नॉनवेज परोसा जाता था .मैं बहाने से प्लेट ही टेबल से गिरा देती और फिर भाग जाती . जब आठवीं में होस्टल में गयी और अपना नाम शाकाहर खाने वालों में लिखवा लिया. तब जाकर घर वालों की इस कोशिश को विराम मिला.

इसके बाद एक साल हम गाँव के स्कूल में जाते रहे . सचमुच सिर्फ जाते ही रहे . वहाँ की पढाई के स्टैण्डर्ड से हम बहुत ज्यादा जानते थे ,इसलिए मैं और मेरा भाई बिना कुछ पढ़े ही क्लास में फर्स्ट आये. 
तब तक पिताजी नए शहर में व्यवस्थित हो गए थे और उनके ऑफिस के दो कर्मचारी वहाँ के स्कूल में हमें दाखिले के लिए ले गए . इस स्कूल की पढाई बहुत ही अच्छी थी और यहाँ के हेडमास्टर बहुत ही सख्त . उन्होंने हमारा टेस्ट लिया और मुझे सातवीं की बजाय पांचवी में और भाई को तीसरी कक्षा में एडमिशन देने को तैयार हुए . सिर्फ सबसे छोटे भाई को पहली कक्षा में दाखिला मिल गया था . हमारे लिए यह डूब मरने की बात थी . हम शर्म से सर झुकाए घर आ गए और आँगन में एक दीवार की तरफ मुहं कर के खड़े हो गए. पिताजी का ऑफिस पहली मंजिल पर था और ग्राउंड फ्लोर पर हमलोग रहते थे . उन्हें खबर मिली और वे धम धम करते सीढियां उतर कर आये . आज भी उन कदमों की धमक जैसे कानों में है. पहले तो मम्मी-पापा दोनों से हमें खूब डांट पड़ी फिर उनलोगों ने अपनी गलती भी समझी. पापा हेडमास्टर साहब से मिले और उन्हें आश्वासन दिया कि तीन महीने में अगर हम उस क्लास के स्तर तक नहीं पहुँच सके तो बेशक वे हमें निचली कक्षाओं में डाल दें . हमारा एडमिशन तो अपेक्षित कक्षाओं में हो गया पर उसके बाद जो हमारी रगड़ाई शुरू हुई . पिताजी मैथ्स ,इंग्लिश साइंस पढ़ाते , माताश्री हिंदी,  इतिहास, भूगोल  का घोटा लगवातीं . पर यह हम सबकी ज़िन्दगी का 'टर्निंग पॉइंट' था. इस से पहले हमारे पिताजी ने कभी हमारी पढाई में रूचि नहीं ली थी. अब तक हम दोनों अपनी अपनी क्लास में फर्स्ट आते रहे थे. इसलिए उन्होंने  कभी जरूरत भी नहीं समझी .पर उस वक़्त जो बच्चों को पढ़ाने में उनकी रूचि जागी वो अब तक कायम है .( अपने बच्चों की गरमी की छुट्टियों में जब मैं पटना जाती तो पापा रोज सुबह मेरे दोनों बेटे को मैथ्स और इंग्लिश पढ़ाते ).

इस पढ़ाई का नतीजा ये निकला कि फिर से छमाही परीक्षा में हम दोनों अपनी अपनी क्लास में प्रथम आये और हेडमास्टर साहब ,जिन्हें  हम ‘हेड सर’ कहते थे निस्संकोच हमारे घर पर विशेष रूप से माता- पिता से मिलने आये (शायद थैंक्स कहने )

‘हेड सर’ बच्चों की पढ़ाई में बहुत रूचि लेते थे . उन दिनों सातवीं कक्षा में जिला स्तर पर स्कॉलरशिप की परीक्षा होती और पूरे जिले में दो बच्चों को आगे पढने के लिए १०० रुपये मासिक (जो तब बड़ी रकम थी ) स्कॉलरशिप प्रदान किया जाता. हेड सर की ये कोशिश होती कि स्कॉलरशिप उनके स्कूल के बच्चों को ही मिले. और इसके लिए वे एक क्लास टेस्ट लेते और आठ-दस बच्चों को चुनकर ,उनकी अलग से पढाई लेते . मेरी क्लास में आठ बच्चों को चुना गया था ,छः लड़के और दो लडकियां . लड़कों में हरि, विनोद, विभूति के नाम याद हैं लड़कियों में, मैं और झूमा चटर्जी थे . हमारी कक्षाएं बरामदे में अलग से लगतीं . हमारा टाइम टेबल अलग होता .स्कूल के ही सारे टीचर क्लास लेते पर बिना एक रुपया भी अलग से चार्ज किये . (शायद तब कोई स्कूल फीस भी नहीं थी ) .
स्कॉलरशिप की परीक्षा भी दो स्तर पर होती . प्रीलिम्स और फाइनल . प्रीलिम्स में तो हम आठों निकल गए पर फाइनल में मैं ही सफल हो पायी. और फिर आठवीं से आगे की पढाई के लिए हॉस्टल  में चली गयी .

मेरे बाद भी शायद हर साल, इस स्कूल के ही बच्चों को स्कॉलरशिप मिलता रहा . तीन साल बाद मेरे भाई को भी मिला जबकि मेरे भाई की क्लास में ही हेड सर का बेटा भी था . पर उन्होंने बिना स्वार्थ के सभी छात्रों को समान रूप से शिक्षा प्रदान की .

पता नहीं, अब इतने समर्पित शिक्षक होते हैं या नहीं जो स्कूल के बच्चों को उन्नति करते देख ही खुश हो जाएँ . निस्स्वार्थ रूप से बस छात्रों का भविष्य उज्जवल बनाने का प्रयत्न करें. आस-पास के इलाकों का वह इकलौता मिड्ल स्कूल था . उस स्कूल की पढ़ाई अच्छी होती या खराब , उस स्कूल में बच्चे पढने आते ही. अगर ‘हेड सर’ इतना  अतिरिक्त मेहनत नहीं करते फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ता .पर वे अपने छात्रों को एक बेहतर भविष्य देने के लिए कटिबद्ध थे .

‘हेड सर’ ने हमारे पूरे परिवार को ही एक नयी दिशा दी . अगर वे हमें उस दिन एडमिशन दे देते (क्यूंकि पापा के ऑफिस के कर्मचारियों ने उनकी बहुत चिरौरी की थी, मेरे पक्ष में तो इतना तक कहा था कि ये तो लड़की है, इसकी शादी हो जायेगी, क्या फर्क पड़ता है,किसी क्लास में पढ़े, पर वे अपने निर्णय पर दृढ रहे )हमें  एडमिशन मिल जाता  तो हम भी जैसे-तैसे पढ़ाई करते रहते. पिताजी भी इतनी रूचि नहीं लेते और हो सकता है हम सबके जीवन की दिशा कुछ और ही होती .

‘हेड सर’ तो हमेशा ही याद आते हैं. आज शिक्षक दिवस पर उन्हें कोटिशः नमन

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...