मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

तपती धरती पर एक बूँद गिरी हो जैसे

फेसबुक और ब्लॉग्गिंग के विषय में बहुत कुछ लिखा जाता रहा है कि लोग ब्लॉग्गिंग से फेसबुक  की तरफ पलायन कर गए हैं ..और अब फेसबुक पर स्टेटस लिख कर ही संतुष्ट हो जाते हैं आदि आदि. पर मेरी यात्रा उलटी रही. फेसबुक पर मैंने 2006 में ही अकाउंट बनाया था जबकि ब्लॉगिंग  ज्वाइन की 2009  में . पहले फेसबुक पर मेरी फ्रेंड्स लिस्ट में सिर्फ जाने-पहचाने मित्र और रिश्तेदार ही थे पर  ब्लॉग्गिंग ज्वाइन करने के बाद काफी ब्लॉग दोस्त (कर्ट्सी शोभा डे ) भी फेसबुक पर मित्रों में शुमार हो गए .

फिर भी मैं बहुत कम लोगों को ही add करती हूँ . बहुत ज्यादा सक्रिय भी नहीं हूँ..कि सबकी स्टेटस पढूं, कमेन्ट करूँ लिहाजा मेरे स्टेटस पर ज्यादा likes  और कमेंट्स भी नहीं होते. वरना किसी  ने लिखा, " धूप कितनी खिली हुई है ..शाम कितनी सुहानी  है " और सौ दो सौ likes . किसी की बचकानी तुकबंदी पर भी लोग अश अश कर उठते हैं, और दो सौ से ऊपर लोग like कर जाते हैं. मेरी कोई स्टेटस बहुत पसंद की गयी हो तब भी चालीस से ज्यादा लोगों ने like  नहीं किया .पर अभी कुछ लिख कर पोस्ट किया और हैरान  रह गयी 320 likes और 29 शेयर . 

मैंने  लिखा था ,
"रेडियो एफ .एम. वाले पूछ रहे हैं ,"अगर आपको किसी को थैंक्यू कहना है तो हमारे माध्यम से अपना थैंक्स भेज सकते हैं "
एक लड़की का फोन आता है , " कल रात ऑफिस में बहुत देर हो गयी और मैरिन ड्राइव पर मैं टैक्सी के इंतज़ार में खडी थी .एक भी खाली टैक्सी नहीं आ रही थी. .तभी पास आकर एक टैक्सी रुकी उसमे एक लड़का बैठा था बोला , ,"आप टैक्सी में बैठ सकती हैं, जहां जाना होगा छोड़ दूंगा " पर मैं डर गयी ,उसके साथ टैक्सी में बैठने को तैयार नहीं हुई तो वह बाहर निकल आया और बोला , "आप इस टैक्सी से चले जाइये ,आपका इतनी देर रात, अकेले खड़े रहना ठीक नहीं . मैं दूसरी टैक्सी ले लूँगा ".मैं उस लड़के का नाम नहीं जानती ,उसकी शक्ल भी ठीक से नहीं देखी पर आपके माध्यम से अपना थैंक्स बोलना चाहती हूँ "

हमारी भी एक बिग थैंक्यू उस अनाम लड़के को. इतनी संवेदनशीलता सब में आ जाए फिर कैसी शिकायत रहे इस दुनिया से
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    खैर ये बात भी तारीफ़ के काबिल थी, पसंद करने के लायक थी.  लोगों ने जेनुइनली पसंद किया था. मुझे भी बहुत अच्छी  लगी थी तभी मैंने भी स्टेटस के रूप में लिखा.
    पर यह सब देख थोडा दुःख भी हुआ. इस किस्म की संवेदनशीलता, ऐसी सहृदयता, एक अनजान की मदद करने का ज़ज्बा इतना कम हो गया है कि जो भी पढ़ रहा है, अभिभूत हो जा रहा है. जैसे ये  कोई rarest of rare घटना हो.

    उस लड़के ने कोई अपनी जान पर खेल कर गुंडों से उस लकड़ी को नहीं बचाया था . एक छोटा सा  gesture था, एक अनजान लड़की को देर रात सड़क पर खडा देख चिंतित हो गया और अपनी टैक्सी से उतर कर उसे वो राइड ऑफर कर दी. हो सकता है, आधे घंटे बाद या एक घंटे बाद ही उसे दूसरी टैक्सी मिल गयी हो. पर आजकल किसी अनजान के लिए इतना सा भी कोई नहीं करता . सबलोग बस अपनी दुनिया में मगन रहते हैं. इस लड़के की  टैक्सी गुजरने से पहले और भी कई टैक्सियाँ गुजरी होंगीं. पर किसी ने चिंता नहीं की कि  देर रात एक लड़की सड़क पर यूं अकेली खड़ी है. कल को कुछ हादसा हो जाता तो जरूर खबरे देख कर अपना आक्रोश व्यक्त करते. शायद कैंडल और पोस्टर ले, मोर्चा भी निकालें. पर अपने आस-पास के प्रति ज़रा सी भी जागरूकता नहीं  जागती. 
    अगर हम सब अपनी आँखें थोड़ी सी खुली रखें. अपने आस-पास जो घट रहा है, उसके प्रति संवेदनशील रहें . इतने ज्यादा आत्मकेंद्रित न हों.  रिश्तेदारी और  मित्रता से अलग भी दूसरों  की मदद के लिए तत्पर रहें तो कितने ही हादसे टल जाएँ. 

     उस लड़के द्वारा किया गया सद्कार्य आम होना चाहिए कि लोग सुन कर इसे आम समझें और कहें ,"हाँ..ऐसा तो होता ही है ' .इसमें कुछ अनोखा नहीं लगना चाहिए . अभी तो ऐसा लगा, जैसे इस असंवेदनाशीलता की लपट से झुलसती धरा पर बारिश की एक बूँद सी थी,ये घटना जो  इस जलती धरती पर गिरी और विलीन हो गयी. लोग इस बूँद की शीतलता की खबर पर ही मुग्ध हैं पर ऐसी कई बूँदें मिलकर बारिश का रूप ले लें और हमारे आस-पास बरसें तो फिर हमारी धरा जरा हरी-भरी हो. 
    खैर, आशा है कि इन 320 लोगों ने जो ये स्टेटस पसंद किया है और जो लोग अब ये पोस्ट पढ़ रहे हैं, वे तो जरूर ऐसा कुछ करेंगे .

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

सुबहें किसिम किसिम की


सुबह वॉक पर जिन सड़कों से गुजरती हूँ वह शांत बंगलों का इलाका है. उनींदे से बंगले भरी दुपहर को भी शायद नींद से पूरी तरह नहीं जागते. इन बंगलों में या तो विदेश में बस गए बच्चों के माता-पिता हैं या केयरटेकर. इनलोगों का इन बंगलों को बेचने का कोई इरादा नहीं. वरना बिल्डर्स की गिद्ध दृष्टि तो लगी हुई है कि कब कोई बंगले का मालिक इन का मोह त्यागे और ये उस जगह पर आकाश छूती बिल्डिंग खड़ी कर दें. बंगलों के छोटे-छोटे गेट शांत वीतराग से दीखते हैं. सुबह सुबह कभी कोई आता-जाता नहीं दीखता और मुझे अपने बचपन की कॉलोनी याद आ जाती है.  एकदम से जैसे पूरा परिदृश्य  जीवंत हो उठता है. ऐसा लगता है, एक गेट पर अखबार पढ़ते शर्मा जी खड़े हैं और दूसरी गेट पर खड़े सिन्हा साहब से जोर जोर से अखबार में पढ़ी कोई खबर डिस्कस कर रहे हैं. खबर ज़रा इंटरेस्टिंग हुई तो कुछ कुर्सियां निकल आती  .आस-पास के ऑफिसर्स   क्वार्टर से और लोग भी जुट जाते . एक घर से चाय की प्यालियाँ आ जातीं जो बहस को और गरमा देतीं. अचानक कोई घडी देखता और सबको याद आ जाता, दफ्तर जाना है . सब तैयार होने के लिए अपने अपने घर का रुख करते हैं और सभा बर्खास्त हो जाती .

ऐसी जाने कितनी बीती सुबहों की  यादें ,स्मृति की किवाड़ थपथपा गुजर जाती हैं . 
कभी गाँव  की सुबह आँखों के आगे साकार हो जाती  है, जहाँ प्रसाद काका अरहर के सूखे डंठलों से बाहर झाड़ू लगा रहे होते. झाडू लगा, पत्ते, लकड़ी (दूसरी गंदगी तो होती नहीं ) एक कोने में इकट्ठे कर देते कि रात में जलाएंगे . दादा जी एक कुर्सी पर बैठे , गाय बैलों को सानी देने का निर्देश दे रहे होते. गाय- बैलों की बथान में चारा कट रहा होता . .. सामने की सड़क से ढेर सारी गाय-भैंसों को हांकता और खुद एक भैंस पर सवार शिवनाथ ऊँचे स्वर में आल्हा -उदल गाते, उन्हें चराने के लिए ले जा रहा होता . घर से लगे किचन गार्डन में चाचा अपनी खुरपी ले सब्जियों के पौधों की देखभाल में लगे होते. हर मौसमी सब्जी उस गार्डेन में होती. मटर की फलियाँ, टमाटर, मिर्ची , भिन्डी, गोभी को हम छू छू  कर ही खुश  हो लेते. चाचा कभी मना नहीं करते, भले ही उन्हें क्यारियाँ दुबारा बनानी पड़ें. कभी कभी हमें उन्हें तोड़ने की जिम्मेवारी भी सौंपी जाती और इनाम में चौकलेट भी मिलती. 
पर सुबह तो हम  बच्चे लोग उनींदे से बाहर  के बरामदे मे चौकी पर बैठे होते. दादी , बाहर एक चबूतरे पर स्थित हनुमान  जी की पूजा कर डलिया लिए अन्दर के भगवान  की पूजा करने  जा रही होतीं. हनुमान जी के चबूतरे पर पास ही खड़े गुलमोहर और कनेल के पेड़ की सघन छाया होती. दादी तो सुबह शाम ही पूजा करतीं पर कनेल का पेड़ दिन भर अपने पीले पीले फूलों का अर्पण करता रहता . उन दिनों भाग- दौड़  के खेल ही पसंद थे, दादी के कहने पर कभी बस हाथ जोड़ने के लिए ही हम बच्चे उस चबूतरे पर जाते . अब सोचती हूँ, उस ठंढे चबूतरे पर पेड़ों की सघन छाया में बैठ कोई किताब पढ़ना कितना सुखदायक  अनुभव होता.
अन्दर जाते हुए दादी , हमें नाश्ता करने का निर्देश  देती जातीं. हम आँगन में आ जाते. एक तरफ काकी हंसुए (फसुल ) से ढेर सारी  सब्जी काट रही होतीं. उनकी बेटी या तो आँगन में पड़े सिल पर ढेर सारा मसाला पीस रही होती या फिर चापाकल से बाल्टियों में पानी भर  रही होतीं . लकड़ी के चूल्हे पर मिटटी का लेप लगाए पीतल के दो बड़े बड़े बर्तन चढ़े होते, एक में दाल उबल रही होती और दुसरे में चावल के लिए  अदहन खौल रहा होता. चाची हमें देखते ही पूछतीं , "क्या खाइएगा  नाश्ते में ? " 
अब ख्याल आता है कभी चाची से भी कोई पूछता था" क्या खायेंगी या नाश्ता किया या नहीं ?" या किसी भी गृहणी से कोई पूछता है, कभी ?? 

नाश्ते का ख्याल  जैसे वर्त्तमान  में ला पटकता  है  . गुलाबी  सुबह हो या सुहानी शाम...नाश्ता-लंच -डिनर में क्या बनाना है, जैसी चिंताएं किसी महिला का कभी पीछा नहीं छोड़तीं. पर वो विचार जैसे माथे पर एक थपकी दे चला जाता है. सुबह अपना सौन्दर्य समेटे वैसे ही खड़ी रहती है, ध्यान नहीं भटकने  देती.
 पर सुबह तो गाँव की हो, मुंबई की हो या टिम्बकटू की भली सी ही लगती है {वैसे टिम्बकटू की सुबह देखी नहीं है :)} मुंबई की दौड़ती- भागती सड़कें भी जैसे सुबह दम भर को सुस्ता रही होती हैं . इक्का दुक्का कार, ऑटो उन्हें हौले से जगाती है पर वे करवट बदल फिर सो जाती हैं .लेकिन जल्द ही स्कूल जाते बच्चों का ग्रुप सड़क के किनारे जमा होने लगता है और बसों की आवाजाही,अगले चौबीस घंटो के लिए  सड़क को पूरी तरह जगा देती है .

सुबह की सैर सेहत सुधारने के लिहाज से की जाती है. पर इसके साथ कुछ फायदे अपनेआप जुड़
जाते हैं .एक तो घर से निकलते ही मुस्कराहटों का आदान-प्रदान , सुबह की शुरुआत इस से अच्छी और क्या होगी और हर थोड़ी दूर पर खिले खिले चेहरे वाले बच्चों को देख दिन यूँ ही बन जाता  है. कहीं चार लडकियां बेपरवाह हंस रही होती हैं और मन अपने आप एक छोटी सी दुआ मांग लेता है ,' ईश्वर इनकी हंसी यूँ ही हमेशा सलामत रखना '. कहीं कोई अलसाया ,उनींदा सा बच्चा ,अपनी माँ की गोद में चढ़ा हुआ होता है. माँ खुद ही एक स्कूल गर्ल सी लग रही होती है .पास ही शॉर्ट्स में एक युवा पिता बच्चे का बैग कंधे पर टाँगे खड़ा होता है. एकदम जैसे पास खड़े बच्चे का बड़ा रूप .अच्छा लगता है ज्यादा से ज्यादा पिताओं को बच्चों की जिम्मेवारी लेते  देख. एक आबनूसी रंग के छः फीट  से भी लम्बे पिता , के एक कंधे पर गुलाबी दुसरे पर नीली बैग और गले में गुलाबी-नीले रंग के वाटर बोतल  टंगे देख तस्वीर खींचने को हाथ मचल जाता है. पर रोक लेती हूँ खुद को. वैसे वे शायद बुरा भी नहीं मानते , दोनों बेटियों से बातें करते ,उनके दांतों की धवल पंक्ति चमक चमक जाती है, और उनके स्नेहिल स्वभाव का परिचय दे जाती है. पर किसकी किसकी फोटो लूँ ?? थोड़ी  ही दूर पर एक पिता अपने नवजात शिशु को धूप में लेकर खड़ा रहता है, नवजात शिशुओं को अक्सर जौंडिस की शिकायत हो जाती है और डॉक्टर शिशु को धूप सेंकने की सलाह देते  हैं. इसे भी वही शिकायत होगी. नई नवेली माँ  को जैसे पति पर भरोसा नहीं होता , वो हर थोड़ी देर बाद आकर बच्चे के कपड़े पर यूँ ही हाथ  फेर जाती है . बच्चे को कपड़ा तो ओढ़ाना नहीं जो वो ठीक कर जाए. खुले बदन , बेसुध सो रहे बच्चे को निहारते माता- पिता  की जोड़ी बहुत भली लगती है, पर फिर भी फोटो खींचने की  इच्छा , उनकी दुनिया में खलल डालने सा लगता है .

कई जगह अपनी कंपनी के बस का इंतज़ार करते लोग भी दिख जाते हैं. एक लड़का और एक लड़की अक्सर बातों में खोये , खड़े रहते हैं. मेरे मन  में एक कहानी जन्म लेने लगती है .फिर सर झटक देती हूँ, क्या पता लड़की शादी- शुदा हो. उसकी सीनियर हो. एक कॉलेज जानेवाली लड़की के पैरों के नाखून पर लगी पीले रंग की नेल्पौलिश और ठीक उसी रंग के चप्पल की स्ट्रैप पर नज़र पड़ती है. क्या क्या आ गया है फैशन में .

सड़क के किनारे बन रही अदरक-इलायची वाली  चाय की खुशबू नथुनों में भर जाती है. हम सहेलियां एक दूसरेको देखते हैं और आँखों में ही कहते हैं,बरसात आने दो ,फिर हम भी इस चाय का लुत्फ़ उठाएंगे. बारिश में पूरी तरह भीग कर  इस  खुशबु वाली  चाय पीने से बड़ा सुख और कुछ नहीं. पर हम महिलाओं के लिए ये बस यहाँ मुंबई में ही संभव है, आस-पास खड़े चाय पीते ऑटो वाले भी नोटिस नहीं करते. 

वॉक से लौटते वक़्त काका (जिनके विषय में एक पोस्ट यहाँ लिखी है ) मिलते हैं और आदतन एक टॉफी , कोई मीठी गोली थमा देते हैं. मुझे टॉफी पसंद नहीं पर काका को मना भी  कैसे करूँ . सामने से ही बच्चों का झुण्ड आ रहा होता है. पास में ही एक म्युनिसिपल स्कूल है . चौड़े दुपट्टे ओढ़े लडकियां ,अपने छोटे भाई-बहनों का हाथ थामे होतीं. बीच बीच में कामवालियां भी अपने बच्चों के बैग उठाये तेजी से कदम बढ़ा रही होतीं, बच्चे को स्कूल छोड़, उन्हें घर घर काम पर भी जाना होता है. मैं उनमे से किसी बच्चे को टॉफी देना चाहती  हूँ. कभी कोई बच्चा  ले लेता है, कभी कोई मुस्करा कर आगे बढ़ जाता है , कभी साथ में उसकी बड़ी बहन या बड़ा भाई होते हैं, वे मुझ पर भरोसा कर के इशारा करते हैं, 'ले लो चौकलेट .' 

बिल्डिंग की  गेट पर ही  ग्राउंड फ्लोर पर रहने वाला 'पायलट डेरेक' हाथ में सैंडविच लिए मिल जाता है. मैं टोक देती हूँ , "कॉलेज की आदत गयी नहीं अभी तक ??" वो झेंपा सा मुस्कुरा देता है और अपनी एयरहोस्टेस पत्नी की तरफ मुखातिब हो जाता  है, जो खिड़की पर खड़ी कुछ कह रही होती है. दोनों अलग अलग एयरलाइंस में हैं,बहुत कम मिल पाते हैं, कितनी ही बातें कहने को रह जाती होंगी, जो अब उसकी पत्नी खिड़की से झांक कर कह रही है. ऐसे ही दौड़ती-भागती सेवेंथ फ्लोर  वाली लड़की भी रोज मिलती है. गीले बाल , सादे कपड़े ,कोई मेकअप नहीं, एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत है. रात के दस बज जाते हैं, लौटते . कहाँ समय है फैशन का ?? और लोग बवाल मचाते हैं आजकल की लडकियों को फैशन के अलावा कुछ नहीं सूझता .

घर आती हूँ, तो मेरे दोनों बेटे कॉलेज के लिए तैयार हो रहे होते हैं. और बरसों पुराना उनका झगडा बदस्तूर जारी रहता है. के.जी  से जो शुरुआत हुई है , कि 'इसने मेरी पेन्सिल ले ली'...'रबर ले ली '...'नोटबुक ले ली'...अब बस रूप बदल गया  है, 'इसने मेरा पेन ड्राइव ले लिया '...'मैंने तो देखा तक नहीं'...तुमने ही गुम किया है'...'मैं क्या पहनूं अब ?जो टीशर्ट सोचा था, इसने कल पहन ली '. ..'तुम भी तो मेरा पहन लेते हो ,बिना पूछे '...पहले मैं इन बातों पर खीझ जाती थी . अब एक मुस्कान आ जाती है. अब इन झगड़ों की उम्र ज्यादा नहीं बची . अंकुर जल्दी ही जॉब ज्वाइन करने वाला है और अब उसके कपड़े, उसकी चीज़ें अलग तरह की होंगीं .

बच्चे नाश्ता कर कॉलेज के लिए और पतिदेव चाय पी कर , Kipper (हमारा डॉग ) को घुमाने के लिए निकल जाते हैं. पास में  ही एक Dog's park बना है जहाँ सिर्फ कुत्ते और उनके मालिक को ही प्रवेश की अनुमति है. बड़े शहर के चोंचले. यहाँ के कार्पोरेटर ने वायदा किया था कि जीतने पर Dog's park बनवा देगा. वायदे तो और भी बहुत सारे किये होंगे, पूरा बस यही किया. 

मैं बालकनी में चली आती हूँ. सामने ढेर सारे पेड़ों की शाखाएं लहरा रही होतीं. और उनपर चिड़ियों की चहचहाट गूँज रही होती. हाल में ही गौरैया दिवस गुजरा है .और फेसबुक पर कई छोटे शहरों, कस्बों में रहने वाले लोगों ने लिखा कि 'कई महीनों से उन्होंने गौरैया नहीं देखी.' पर इस मामले में खुशनसीब हूँ कि गौरैया, कबूतर, कव्वे, कोयल तो रोज ही दीखते हैं,  तोता, बुलबुल, किंगफिशर, नीलकंठ (दूसरा नाम नहीं पता )  भी अक्सर दिख जाते हैं. एक दिन वहीं खड़ी थी और सुबह सुबह ही अदा का फोन आया, उसने कव्वे की आवाज़ सुन खुश होकर कहा ,"अरे ! ये कव्वे की आवाज़ है क्या , बहुत दिनों बाद सुनी. " क्या दिन आ गए हैं, कोयल सी आवाज़ वाली कव्वे की आवाज़ सुन खुश हो रही है. 

नीचे देखती हूँ, एक नवविवाहित युवक ऑफिस जाने के लिए निकलता है. पीछे पीछे घुटनों तक का फ्रॉक पहने उसकी पत्नी उसे छोड़ने आती है. युवक जबतक गेट से निकल कर आँखों से ओझल नहीं हो जाता, उसकी पत्नी देखती रहती है. पर वो खडूस (अब खडूस ही कहूँगी ) एक बार भी पलट कर नहीं  देखता . सोचती हूँ, कभी सामने मिल गया तो बोल दूंगी, ,एक बार पलट कर मुस्करा  कर हाथ हिला देगा तो उसका कुछ नहीं जाएगा.' एक कपल साथ में ऑफिस के लिए निकलते हैं , लड़की की गोद में एक साल का बच्चा है. माँ/सास  पीछे पीछे आती है. लड़की बच्चे को माँ की गोद में दे देती है , फिर ले लेती है...इधर पति अधैर्य होकर कार की हॉर्न मार  रहा होता है, पर बच्चे को लेने और देने का क्रम तीन चार बार चलता है. इतने छोटे बच्चे को छोड़ ऑफिस जाने में उसका जी टूक टूक हो जाता होगा . पर इस महंगाई में दोनों की नौकरी बिना गुजारा भी मुश्किल और फिर कई बार कैरियर में पिछड़ जाने की बात  भी होती है.  

एक और पिता ऑफिस जाने से पहले ,दस-पन्दरह मिनट अपनी बेटी के साथ जरूर खेलता है.  पर उसका बेटी के साथ खेलने का तरीका बहुत अलग सा है .सोचती हूँ, उसके घर की कोई बड़ी बूढी देख लें तो अच्छी  लानत मलामत करे उसकी. बच्ची  को जोर जोर से हवा में उछाल कर पकड़ना तो मामूली बात है. कभी उसे नीचे गिराने की एक्टिंग कर के डराता  है. तो कभी कार की छत पर उसे बिठा हट जाता है. बच्ची चिल्ला कर रोती है तो प्यार से उसे गले लगा लेता है. एक दिन तो हद कर दी. बेटी को पैसेंजर सीट पे बिठाया बेल्ट लगाया और ड्राइवर से बोला , 'गाड़ी आगे ले लो.' गाड़ी के सरकते ही बच्ची जोर से चिल्लाने लगी और पिता ने फिर हँसते हुए उठा सीने से चिपटा लिया. राम जाने यूँ डरा डरा कर खिलाने में उसे क्या मजा आता है. कभी मिले तो जरूर टोक दूंगी. पर इन सबके ऑफिस जाने का वक़्त एक सा होता है, आने का नहीं .

एक युवा शायद लम्बी टूर पर जा रहा है. साथ में बैग भी है. टैक्सी आ गयी है. उसका भी चार पांच महीने का छोटा सा बच्चा  है. लाल रंग के गाउन में बीवी बच्चे को लिये खड़ी रहती है. युवक पहले तो दो तीन बार बच्चे को चूम कर प्यार करता है और फिर बेझिझक पत्नी के होठों को चूमकर भी विदा कहता  है. आस-पास इतने लोग आ जा रहे होते हैं ,पर कोई पलट कर भी नहीं देखता . वैसे ही  सामने वाली टेरेस पर भारी बदन वाली 'प्रियंका चोपड़ा 'की म्यूजिक टीचर शॉर्ट्स और बनियान में घूम घूम कर फोन पर बतियाती रहती है. उसके घुघराले बालों वाला प्यारा सा बेटा  दूध का ग्लास थामे माँ की चाल की नक़ल करता उसके पीछे पीछे घूमता रहता है. उसके ही बगल वाले फ़्लैट में एक बच्चा  अपने छोटे छोटे हाथों से धुले कपड़े फैलाने में पिता की मदद करता है. पिता उसे रुमाल, मोजे जैसे छोटे -छोटे कपड़े फैलाने के लिए दे देते हैं. देख  मन सुकून से भर जाता है, यह बच्चा बड़ा होकर घर के काम करने में कभी अपनी हेठी नहीं समझेगा. 

यहाँ करीब करीब हर स्कूल में दो शिफ्ट होती है.  दोपहर की शिफ्ट वाले बच्चे अक्सर स्विमिंग पूल में आकर स्विमिंग तो कम करते हैं, एक दुसरे पर पानी फेंकना , पानी में धकेल देना, जैसी शरारतें ही ज्यादा करते  हैं. पानी की छाप छाप के बीच उनकी खिलखिलाहटें कानों को भली लगती है. एक पांच साल की बच्ची लाल रंग के स्विमिंग सूट में इतने कॉन्फिडेंस से चल कर आती है कि कई मॉडल्स पानी भरें, उसके सामने . वो स्विमिंग सीख रही है पर इतनी दिलेर है, बार बार इंस्ट्रक्टर का हाथ झटक देती है. कभी कभी तो बस उसके सर पर बंधा  लाल रंग का बैंड ही पानी के ऊपर नज़र आता है,पूरा शरीर पानी के भीतर . उसकी माँ घबरा कर कभी पूल के इस किनारे तो कभी उस किनारे से आवाज़ लगाती रहती है . पर वो बेख़ौफ़ तैरती रहती है. बस उसका ये आत्मविश्वास ये निडरता ताजिंदगी बनी रहे.

सामने गेट से एक अंकल आंटी चर्च से लौट रहे होते हैं. दोनों हमेशा साथ दिखते हैं. अक्सर एक दुसरे के लडखडा जाने पर सहारा देते हैं . थैला भी बारी बारी से उठाते हैं, कभी अंकल, तो कभी आंटी. उनके पीछे से ही नमूदार होती है मेरी काम वाली  बाई .और मुझे याद आ जाता है, किचन में बर्तन खाली करने हैं, वॉशिंग मशीन में कपड़े डालने हैं . सोफे, कुर्सियों,टेबल  पर से चीज़ें हटानी हैं, पतिदेव का ब्रेकफास्ट तैयार करना है . 

अब खुद से मिलने के वक़्त की मियाद ख़त्म......इंतज़ार अगली सुबह का .



सोमवार, 22 अप्रैल 2013

नरेश चंद्रकर जी की कुछ बेहतरीन कवितायें

नरेश चंद्रकर जी एक प्रतिष्ठित कवि हैं. 

पत्र पत्रिकाओं में उनकी कवितायें नियमित रूप से प्रकाशित होती  हैं. 
दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके  हैं 
'बातचीत की उडती धूल में (२००२)
बहुत नर्म चादर थी जल से बुनी (२००८) 

उन्हें 'गुजरात साहित्य अकादमी सम्मान '
एवं 'मंडलोई सम्मान' से सम्मानित किया जा चुका है 

और हमारे लिए गर्व की बात है कि इतने प्रतिष्ठित कवि को मित्र कहने का गौरव प्राप्त है हमें . इस महिला दिवस को उन्होंने एक बहुत ही ख़ूबसूरत कविता के साथ मुझे महिला दिवस की शुभकामनाएं दीं.
                                                 
                                                 पर, ठोस कुछ करती हुई

नदी के पास से होते हुए घर लौट रहा हूँ
मछलियाँ जबकि अपने ही घर में हैं
छोटी-बड़ी, रंगवाली, पंखोंवाली सब तरह की मछलियाँ
हैं अपने ही आवास में
विचरती पारदर्शी, लहर-दीवारों के आर-पार
वे हैं इसलिए जल स्वच्छ है
नदियाँ सुंदर है
बह रही है हवा की उँगलियों का स्पर्श ले-लेकर
घर ओर तमाम दुनिया में रहने वाली स्त्रियों के बारे में सोचता हूँ
वे चुपचाप हैं
चलती भी हैं तो बे-आवाज
पर, ठोस कुछ करती हुई।।                              

पर हम तो जनम के लालची ठहरे . हमने झट से फरमाइश कर दी कि अपनी कुछ और  स्त्री विषयक कवितायें , हमें पढवाएं और उनकी अनुमति हो तो मैं इस कविता के साथ,उन कविताओं को  अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना चाहूंगी. 
उन्होंने सहर्ष अपनी कई कवितायें भेज दीं . बहुत बहुत शुक्रिया नरेश जी.
नरेश जी की कवितायें स्त्री-मन के भीतरी तहों तक झाँक लेती हैं . उपरी शांत समतल सतह के भीतर हो रही गहरी हलचल को बहुत सरलता  से बयान कर देती हैं. 

                           स्त्रियों की लिखी पंक्तियाँ 

एक स्त्री की छींक सुनाई दी
कल मुझे अपने भीतर

वह जुकाम से पीड़ित थी
कि नहाकर लौटी थी
कि आलू बघारे थे

कुछ ज्ञात नहीं

परइतना जानता हूॅं
काम से निपटकर कुछ पंक्तियाँ लिखकर
वह सोई

तभी लगा मुझे :

स्त्रियों के कंठ में रुंधी
असंख्य पंक्तियाँ हैं, अभी भी
जो या तो नष्ट हो रही है
या लिखी जा रही है
तो सिर्फ ऐसे कागज़ पर

कि कबाड़ हो सके
 कभी पढ़ी जाएंगी
वे मलिन पंक्तियाँ

तो हमें लग सकती है
सुसाईट नोट की तरह !!
             
                  उस लड़की की याद

उस लड़की की याद

उस लड़की की याद
किसी तस्वीर,
किसी दिन
या किसी फिल्म
या किसी किस्से के आधार पर
संभव नहीं थी

वह याद की जा सकती थी

बहुत बोलते बोलते ऊब जाने पर
बहुत काम करते करते थम जाने पर
बहुत गहरे में दु:ख दर्द को झेलते रहने पर
बहुत किल्लत की ज़िदगी जीने पर

वह याद की जा सकती थी
इन सभी की तरह से 

आज उस जैसी लड़की को
जब मैंने
मजदूरनियों के झुंड के पीछे-पीछे चलते
कुछ गुनगुनाते
सुबह-सुबह कहीं जाते देखा

तब
वह मुझे बहुत याद आई!!


                            इन दिनों के दृश्य

तेज चलती बाइक  और
बाईक पर सटकर बैठे देख कर
यह नहीं लगता -


यह पिटी हुई औरत है

या घर लौटकर पिट जाएगी
अपमानित की जाएगी
लानत मलानत में डूबेगी आकंठ


बहुत गड्ड-मड्ड हुई है
इन दिनों के दृश्य में

केवल इतनी इच्छा

दुनिया में कहीं भी हों
बच्चे नहीं रोंए,

सुख चैन से भर रात
घर की नींद
स्त्रियॉं सोए!!

                                 विलय
पहले भी जानता था
पेट डोलता है
धीमे चलना होता है
उठाने होते हैं सधे क़दम


पर आज पहली बार जाना
कभी-कभी
उल्टे भी लेटना चाहती हैं
गर्भवती स्त्रियाँ,पहली बार
छोटी-मोटी इच्छाओं का
देखा बड़े सपनों में विलय!!

                                  वस्‍तुओं में तकलीफें

नज़र उधर क्‍यों गई ?

वह एक बुहारी थी
सामान्‍य –सी बुहारी
घर घर में होने वाली
सडक बुहारने वालि‍यों के हाथ में भी होने वाली

केवल
आकार आदमकद था
खडे –खड़े ही जि‍ससे
बुहारी जा सकती थी फर्श

वह मूक वस्‍तु थी
न रूप 
न रंग 
न आकर्षण
न चमकदार
न वह बहुमूल्‍य वस्‍तु कोई
न उसके आने से
चमक उठे घर भर की ऑंखें

न वह कोई एन्‍टि‍कपीस
न वह नानी के हाथ की पुश्‍तैनी वस्‍तु
हाथरस के सरौते जैसी

एक नजर में फि‍र भी
क्‍यों चुभ गई वह
क्‍यों खुब गई उसकी आदमकद ऊंचाई

वह ह्दय के स्‍थाई भाव को जगाने वाली
साबि‍त क्‍यों हुई ?

उसी ने पत्‍नी-प्रेम की कणी ऑंखों में फंसा दी
उसी ने बुहारी लगाती पत्‍नी की
दर्द से झुकी पीठ दि‍खा दी

उसी ने कमर पर हाथ धरी स्‍त्रि‍यों की
चि‍त्रावलि‍यां
पुतलि‍यों में घुमा दी

वह वस्‍तु नहीं थी जादुई
न मोहक ज़रा-सी भी

वह नारि‍यली पत्‍तों के रेशों से बनी
सामान्‍य -सी बुहारी थी केवल

पर,उसके आदमकद ने आकर्षित कि‍या
बि‍न विज्ञापनी प्रहार के
खरीदने की आतुरता दी
कहा अनकहा कान में :

लंबी बुहारी है
झुके बि‍ना संभव है सफाई
कम हो सकता है पीठ दर्द
गुम हो सकता है
स्‍लि‍पडि‍स्‍क

वह बुहारी थी जि‍सने
भावों की उद्दीपि‍का का काम कि‍या

जि‍सने संभाले रखी
बीती रातें
बरसातें
बीते दि‍न 

इस्‍तेमाल करने वालों की
चि‍त्रावलि‍यां
स्‍मृति‍यां  ही नहीं

उनकी तकलीफें भी

जबकि वह बुहारी थी केवल ! ! 


नरेश चंद्रकर जी की कुछ और कवितायें यहाँ पढ़ी जा सकती हैं. 







शनिवार, 20 अप्रैल 2013

क्या आज वर्जनाहीन समाज ही बच्चियों की सुरक्षा की शर्त है

मुझे कायर कह लें, डरपोक कह लें, असंवेदनशील कह ले,या फिर सेल्फ सेंटर्ड  सब स्वीकारने को तैयार हूँ क्यूंकि दो दिनों से मेरी हिम्मत नहीं हो रही कोई भी न्यूज़ चैनल देखने की. टी.वी. ऑन ही नहीं किया कि कहीं चैनल सर्फ़ करते ही नज़र न पड़ जाए. अखबार की हेडलाइन पर नज़र पड़ी और पलट कर रख दिया. अब ज़रा भी हिम्मत नहीं बची ऐसी ख़बरें पढने की. 

फेसबुक पर मित्रों के अपडेट्स से ही सूचना मिल रही है . वहाँ भी कमेन्ट करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही. जैसे सारे अहसास ही कुंद हो गए हैं. शिराओं में बहता खून जम गया है. कोई उबाल नहीं आ रहा उसमे .मस्तिष्क निस्पंद हो गया, समझने-बूझने की  ताकत नहीं बची है उसमे.

पांच साल की बच्ची और ऐसे मर्मान्तक कष्ट से गुजर रही है. राजस्थान में भी ग्यारह साल की बच्ची ऐसी ही दरिंदगी की शिकार हुई है और शायद दो साल से उसका इलाज चल ही रहा है. कई सर्जरी हो चुके हैं और कितने अभी बाकी हैं . फिर भी वह पूरी तरह नॉर्मल जिंदगी जी पाएगी, इसमें संदेह ही है डॉक्टर्स को.  ऐसी ही जाने कितनी ख़बरें दिमाग में घूम गयीं. कहीं ऐसा वहशीपन  झेलने वाली बच्ची दो साल की  थी, कहीं पांच साल ,कहीं सात तो कहीं दस . 
यह सवाल भी सर उठाता है मन में , पहली बार कब हुआ था  किसी बच्ची  के साथ ऐसा सलूक ?? जब लोगों को पता चला तो क्या प्रतिक्रिया हुई लोगों की ?? क्या सजा दी गयी उस दरिन्दे को ?? क्यूँ नहीं कोई ऐसी सजा दी गयी कि अगले का ऐसा  कुकर्म करने की सोच ही  रूह काँप जाए 

ये भी ख्याल आ रहा है ,क्या विदेशों में भी ऐसी ख़बरें आम हैं ? वहाँ भी बच्चियां ऐसा वहशीपन भुगत रही हैं?? शायद नहीं .वहाँ अगर इस तरह की घटनाएं हुईं भी हैं तो एकाध. हमारे देश की तरह बाढ़ नहीं आती ऐसे हादसों की . 

तो क्या छोटी छोटी बच्चियों के साथ ऐसे दुष्कर्म इसलिए हो रहे हैं क्यूंकि हमारे समाज में तमाम वर्जनाएं हैं ? यौन कुंठित पुरुषों की तादाद इतनी बढती जा रही है कि आये दिन छोटी छोटी मासूम बच्चियां उनकी कुंठाओं का शिकार हो रही हैं. 
 नहीं चाहिए ये बंदिशें ,नहीं चाहिए ये बंधन. सबको आज़ाद कर दो , किसी पर कोई रोक-टोक न हो.  वे अपनी काम-पिपासा ,अपने हमउम्र वालों के साथ ही शांत करें. इन मासूम बच्चियों को बख्श दें . मेरी बातें बहुत ही अव्यावहारिक लग रही होंगीं. पसंद भी नहीं आ रही होंगीं ,पर इस मनःस्थिति  में मुझे इसके सिवा कुछ नहीं सूझ रहा . अगर ऐसे खुले समाज में हमारी बच्चियां  सुरक्षित हो जाती हैं तो यही सही. 

और अगर हमें इतना आगे नहीं बढ़ना है तो फिर पीछे लौट चलें. बाल-विवाह को ही प्रश्रय  दें. आखिर पचास साठ साल पहले इतना वहशीपन तो नहीं था लोगों में . आधुनिक बनने की कैसी कीमतें चुका रहे हैं हम  ??
मासूम बच्चों की सुरक्षा में बुरी  तरह नाकाम रही है ये व्यवस्था .
बिलकुल ही नकारा है, आज की व्यवथा और  आज का समाज . अब या तो बहुत  आगे ही बढ़ जाएँ या थोडा पीछे ही लौट चलें या फिर पाषाण युग में ही लौट जाएँ पर किसी भी  कीमत पर हमारे बच्चों के साथ ये सब नहीं होना चाहिए .
 उनकी सुरक्षा ही सर्वोपरी है. उसके बाद ही प्रगति, विकास ,नियम, संस्कृति, संस्कार आते हैं. 

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

रश्मि प्रभा जी की माता जी की कलम से सोलह वर्षीया किशोरी के मन में उठते भावों का अनूठा चित्रण


{'पिया के घर में पहला दिन' परिचर्चा के लि रश्मि प्रभा जी ने अपनी माता जी 'सरस्वती प्रसाद जी ' का लिखा एक प्यारा सा संस्मरण  भेजा था. वह संस्मरण सबलोगों को बहुत भाया और उसे  पढ़कर अजित गुप्ता जी ने लिखा ," बहुत ही सशक्‍त लेखनी। माँ को प्रणाम। उनकी और रचनाएं भी प्रकाशित करें। " रश्मि प्रभा जी ने तुरंत ही माता जी का एक और प्यारा सा संस्मरण भेज दिया. और आग्रह (जो मेरे लिए आदेश जैसा ही  है ) किया कि अपने ब्लॉग पर ही पोस्ट करना .}

तो प्रस्तुत है सोलह वर्ष की एक बाला के मन में आलोड़ित भावों और उनके शमन के उपक्रम का सुन्दर चित्रण 

कहते हैं- इसकी सीढ़ी पर पाँव रखते ही बिना घुँघरू के पाँव छनक उठते हैं. ज़िन्दगी के आँगन में, रंग भरा मधुपात्र लेकर बसंत उतरता है. मधुमास के गीत-संगीत हवाओं में रस घोलने लगते हैं. धरती पर चलता हुआ मन-पाखी अनायास ही उड़कर किसी अनदेखे शिखर पर पहुँच जाने की कामना करता है और चाहता है किसी स्वप्निल प्रदेश में जाकर ऐसी दुनिया का निर्माण करे जहाँ कल्पना के कुसुम खिलते हो. लेकिन तब, मुझे यह सब मालूम ही कहाँ था! 

एक दिन बस यूँ ही पूछा था उसने, " तुम्हारे उम्र की  यह कौन सी कड़ी है?" मैंने जोड़ कर बताया, "सोलहवी, पर यह प्रश्न, बात क्या है...?" 
"अरे बस ऐसे ही, कोई ख़ास बात नहीं है. इधर एक कहानी पढ़ी है - उम्र के सोलहवे पड़ाव पर उसे प्यार हो जाता है, वह सजती है संवारती है, बार-बार आईने में खुद को देखती है. अपना चेहरा उसे अपना नहीं लगता, बावली होकर सोचती है - मैं फरहाद की शीरीं  हूँ,  माहिवाल की सोहनी, अलबेले रांझे की हीर, मजनू की लैला. सदवृक्ष ने सारे गीत मेरे लिए ही गाये होंगे, सारंगा तो मैं ही हूँ. "
सुन कर बहुत अच्छा लगा और मैंने जिज्ञासा व्यक्त की "उसके बाद क्या हुआ?" 
मेरी दोस्त ने एक लम्बी सांस लेते हुए कहा..."उसके बाद...उसके बाद वह कहीं खो जाती है. उससे कुछ नहीं भाता न खाना न पीना. बंद कमरे में बैठ कर वह कुछ लिखती रहती है, उसके आकुल मन की बातें इन गीतों में परिणत होती हैं, रात के सन्नाटे में बैठ कर वह उन्ही गीतों को गाती है. आसमान के तारों को अपनी बातें सुनती है - चाँद को राजदार बनाती है. चांदनी की नदी में ख्यालों की एक नाव छोड़कर उसमे बैठ जाती है और एक मनमोहक गाँव में पहुँचती है जहाँ उसका रांझा रहता है, उसका माहिवाल टीले पर बैठ कर बांसुरी बजाता है, वह राधा बन जाती है और बावली होकर सोचती है यह मेरा कृष्ण है....ओह! फिर तो गाँव-गाँव, गली-गली, दो पागल प्रेमियों की  चर्चा होती है, लोग उनके दुश्मन  बन जाते हैं."

"ऐ सखी, थोड़ी देर को रुकना, हटने का मन नहीं कर रहा है पर चूल्हे पर राखी मेरी सब्जी जल जायेगी. ससुर जी को खाना भी देना है."
श्यामा मुस्कुराती है, "जा जल्दी काम से निपट ले, तो आगे की कहानी फिर कहूँगी."
जल्दी से थाली लगा कर ससुर जी को मैं खाना देती हूँ.सामने बैठ कर पंखा झलने में मन नहीं लगता है. सोचती है..."लोग उनके दुश्मन बन जाते है....फिर क्या हुआ? "
 ससुर जी चौंक कर मुँह  देखने लगते हैं - "क्या बोलती हो? रोटी लाओ." मैं चौंक कर दाँतों से जीभ दबाती रोटी लेने रसोई घर में चली जाती हूँ.

 फिर श्यामा को आवाज़ देकर बुला लेती हूँ, "अब आगे कि कहो, मेरा सारा काम समाप्त हो चुका है. "
"अब आगे की क्या सुनाऊँ, लोग-बाग़ उनके दुश्मन बन गए, दोनों की राह में कांटे उगाये गए, उन पर पहरे लगाये गए, दिनों-दिन उन पर सख्तियाँ बढती गयी- दोनों की दिशायें बदल दी गई....! बेचारी लड़की, देहरी पर खड़ी घंटो राह देखती है - शायद वो इधर से गुजरेगा- आज तो ज़रूर ही... लड़का सोचता है दुनिया से लोहा लेकर एक दिन मैं उसे जीत लूँगा. कैसी लगी कहानी? "

"बहुत अच्छी, पर लोग-बाग़ ऐसा क्यों करते हैं? मुझे किताब देना, रात में मैं इसे फिर से एक बार पढूंगी. हाँ एक बात बताना इस कहानी को शुरू करने के पहले तुमने उम्र क्यों पूछी? "
" उम्र की  बात है न, इसीलिए. तुम्हारी उम्र भी तो यही है..."
"और तुम भी तो..."
"यही तो बात है, लोग ठीक ही कहते हैं - उम्र की बात है. तभी मैं आजकल कहानियों से जुड़ने लगी हूँ, ऐसे ही बेमाने" 
और ऐसे ही बेमाने मैं भी प्रेम कहानियों में खोने लगी हूँ. उम्र के आसव का सुरूर... उन्ही दिनों मैंने "देवदास", "श्रीकांत", "गुनाहों का देवता" पढ़ा. बिना कुछ सोचे समझे बच्चन की  "मधुशाला " प्रसाद की  "कामायनी", महादेवी कि "यामा" पढ़ ली. गीतों और कविताओं की ख़ास ख़ास पंक्तियों से मेरी कॉपी भरने लगी. "ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे..." ,
 "रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक ऊँगली से लिखा था प्यार तुमने....", 
"प्राण राम पथ झाड़ सखी अब नयन बसे बरसात री..."

एक दिन हमने प्लान बनाया घर के पिछवाड़े चलेंगे , उधर कोई नहीं रहता और शकुंतला दुष्यंत का नाटक खेलेंगे. नाटक करते करते हम हँसने लगे. हँसते -हँसते एक दुसरे को कहा, "हम पागल हैं क्या?" 
उन्ही दिनों हम दोनों ने चित्र बनाये और चित्रों में रंग भरे . पता नहीं ये सोलहवे पड़ाव का जादू था या क्या...इस उम्र की कोई परिभाषा होती है, यह भी हम नहीं जानते थे. ढेर सारी  बातों को समझने की  बुद्धि नहीं थी. 

मैं तो ससुराल में थी, मेरे जिम्मे घर के काम-काज और बूढ़े ससुर की  देख भाल थी. यह तो श्यामा थी की बगल में होने के कारण, किसी मस्त हवा के झोंके को आँचल में बाँध कर लाती थी और उसका जादू मुझे दिखा कर उड़ने को उकसा जाती थी. 
इस प्रक्रिया में मेरा मन उचटता गया . चूल्हे पर राखी डाल कई बार जली, सब्जी में नमक ज्यादा हुआ. रात की सब्जी जो रस्सेदार बनानी पड़ती थी, सूख गई. चूल्हे पर रखा अदहन खौलता रहा और बावरा मन चांदनी की नदी में ख्यालों की  नाव छोड़कर सपनो के देश को चल गया. 

उस दिन की रुष्टता आज तक मुझे ज्यों की त्यों याद है. मेरे ससुर जी की  रुष्टता के साथ साथ घर आँगन की दीवारें भी चीख रही थी " हमेशा सोती रहती हो या सपने देखती हो और वह लंगूरी श्यामा, उसका आना बंद करना पड़ेगा, कहाँ रहता है तुम्हारा ध्यान? " मारे गुस्से के वे काँप रहे थे -"नहीं नहीं ऐसे नहीं चलने का....क्या उम्र हुई होगी तुम्हारी?"

मैंने डरते हुए जवाब दिया "सोलह साल" "हुँह सोलह साल, यह एक उम्र होती है, परिपक्वता की, कोई बच्ची नहीं हो. सोलह के उम्र में बचकानी हरकतें अशोभनीय लगती हैं. तुम्हारी बात-बेबात की हँसी उस लड़की श्यामा के साथ पागलों जैसी बातें, रात गए तक किताबों में सर गडाए रहना, बहुत ख़राब लगता है...उम्र पहचानो लिहाज करना सीखो, बात-व्यवहार की कमी है तुम में...आगे कुछ नहीं कहना मुझे यह अंतिम चेतावनी है..सोलह की उम्र कोई कम नहीं होती!"

इस प्रांत ने मुझे जैसे झकझोर दिया. किसी नींद से जगा दिया, उस रात आईने में खुद को देखते हुए  मैं आँखें नहीं मिला सकी, सोलह साल-परिपक्वता की उम्र. लगा कि मैं बूढी हो गई. उफ़ इस उम्र में बचकानी हरकतें...हंसना  तो हँसते  चले जाना! बोलना तो दुनिया भर  की उल जलूल बातें...मैं अपने आप में ग्लानि से भर उठी. पुस्तकें जो मुझे बहुत प्रिय थी मैंने श्यामा को भिजवा दिया, कापियां जिसमे गीत और कवितायें थी, फाड़कर जला दिया! शकुन्तला-दुष्यंत का नाटक...छी !मैं उसकी याद से लज्जित हो उठी. 

दुसरे दिन मेरे उतरे चेहरे का कारण श्यामा ने जानना चाहा तो मैंने स्पष्ट कर दिया "देखो सोलह की उम्र हो जाने पर भी, बात बेबात हँसना, गाना, कहाँ कहाँ की बातें करना, दिवा सपनो में खोये रहना अच्छी बात नहीं..."
"कौन कहता है ऐसा?"
"मैं कहती हूँ, और कौन कहेगा? "
"वाह अचानक बड़ी समझदार हो गई, कैसे?"
" इसकी सफाई मुझे नहीं देनी - सोलह की उम्र कोई नासमझी की उम्र नहीं होती."

पता नहीं श्यामा ने क्या सोचा , क्या समझा , गंभीर मुख मुद्रा लिए चली गई. हम कई दिनों तक एक दुसरे से कतराते रहे. बीच की कपोल कल्पित बातों पर विराम ही लग गया. अब याद आता है उम्र का वह सोलहवा पड़ाव तो सोचती हूँ, क्या सच-मच मेरी ज़िन्दगी के इस पड़ाव में मधुमास उतरा था या बस यूँ ही ग्रीष्म की झुलसाने वाली तेज़ गर्म हवा चलती रही और हम ताप सहते रहे!

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