शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

घूँघट की आड़ से....

आज आपलोगों को अपने ऊपर हंसने का जम कर मौका दे रही हूँ....अभी लिखते वक्त ही पाठकों के चेहरे नज़रों के सामने घूम रहे हैं...कि मेरी हालत पर उनकी बत्तीसी कैसे चमक रही है.:)

अब भूमिका बना दिया...मूड सेट कर दिया...तो हाल भी लिख डालूं...आपलोगों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी...हमें भी किन हालातों से गुजरना होता है.

मेरे ससुराल में श्रावणी पूजा में पूरे खानदान के लोग इकट्ठे होते हैं. और खानादन में कोई भी नई शादी हुई हो उस दुल्हन को शादी के बाद की पहली श्रावणी पूजा में जरूर उपस्थित होना पड़ता है. मुज़फ्फरपुर(बिहार) से थोड़ी दूर पर एक गाँव है....जहाँ इनलोगों का पुश्तैनी मकान है .मकान क्या अब तो पांच आँगन का वो मकान खंडहर में तब्दील हो चुका है. पर कुल देवता अब भी वही हैं...और पूजा-घर की देख-रेख हमेशा की जाती है. उसकी मरम्मत पेंटिंग समय-समय पर होती रहती है. एक पुजारी साल भर वहाँ पूजा करते हैं. सिर्फ श्रावणी पूजा के दिन आस-पास के शहरों से सबलोग वहाँ इकट्ठे होते हैं.

तो मुझे भी शादी के बाद जाना था . अब नई शादी और गाँव में जाना था सो पूरी प्रदर्शनी. सबसे भारी बनारसी साड़ी...सर से पाँव तक जेवर ..मतलब सर के ऊपर मांग टीका से लेकर पैर की उँगलियों के बिछुए तक.सारे जेवर पहनाये गए. वो बरसात की उमस भरी गर्मी. लोग कहते हैं.."पहनी ओढ़ी हुई नई दुल्हन कितनी सुन्दर लगती है"....जरा उस दुल्हन से भी पूछे कोई...उनलोगों का बेहोश ना हो जाना किसी चमत्कार से कम नहीं.

खैर हम भी ये सब पहन-ओढ़ कर एक कार में रवाना हुए. तब तो वहाँ ए.सी.कार भी नहीं थी. पर खिड़की से आती हवा भी ज्यादा राहत नहीं दे पा रही थी क्यूंकि सर पर भारी साड़ी का पल्लू था. जब वहाँ पहुँच कर कार रुकी और सब तो उतर गए पर मेरे पैर के बिछुए साड़ी की रेशमी धागे में फंस गए थे. किसी तरह छुड़ा कर नीचे उतरी तो बगल में खड़ी अम्मा जी ने जल्दी से आगे बढ़कर घूँघट खींच दिया, अब मुझे कुछ दिखाई ही ना दे .बुत बनी खड़ी रही.

आगे बढूँ कैसे....लगा गिर जाउंगी. ननद की बेटी ने कुहनी थाम कर सहारा दिया...एक हाथ से सर पर साड़ी संभाला तो इस बार साड़ी मांग टीका में उलझ गयी...सीमा ने छुड़ाया .फिर तो वो कार से घर के दरवाजे की दस कदम की दूरी दस किलोमीटर जैसी लगी...एक कदम बढाऊं और साड़ी के धागे, कंगन में फंस जाए....वहाँ से छुड़ा कर आगे बढूँ ...तो कभी नेकलेस में...कभी पायल में फंस जाएँ. आवाज़ से लग रहा था...आस-पास काफी लोग हैं...और सबकी नज़र शायद मुझपर ही है...पर मेरी नज़र तो बस उस एक टुकड़े जमीन पर थी जो घूँघट के नीचे से नज़र आ रहा था...उसी जमीन के टुकड़े पर किसी तरह पैर संभाल कर रखते हुए आगे बढ़ रही थी. घर के अंदर आकर सीमा ने जरा पल्ला सरका दिया तो राहत मिली. चारो तरफ नज़र घुमा कर जायजा ले ही रही थी बरामदे में जल्दी से एक चटाई बिछा दी गयी और मुझे उस पर बैठने को कहा गया. जैसे ही मैं बैठी.. कि एक तरफ से आवाज़ आई.."अच्छा तो ई हथिन नईकी कनिया..." अम्मा जी कहीं से तो आयीं और इस बार तो मेरा घूँघट , घुटने तक खींच दिया...अब तो लगे,दम ही घुट जाएगा...कुछ नज़र भी नहीं आ रहा था.

बैठे-बैठे मुझे 'गुनाहों का देवता' पुस्तक याद आ रही थी. जिसमे सुधा ने अपनी शादी में घूँघट करने से मना कर दिया था और मैं सोच रही थी...मुझमे जरा भी हिम्मत नहीं है. लोग जैसा कह रहे हैं...चुपचाप किए जा रही हूँ {आपलोगों को भी विश्वास नहीं हो रहा ना...मुझे भी अब नहीं होता :)} खुद को ही कोसे जा रही थी..पर अब लिखते वक़्त ध्यान आ रहा है..धर्मवीर भारती ने इस घटना का जिक्र सुधा के मायके में किया है. जहाँ उसके आस-पास उसके अपने लोग थे. ससुराल में सुधा को घूँघट के लिए कहा गया या नहीं...या सुधा की क्या प्रतिक्रिया रही...इन सबका जिक्र उपन्यास में नहीं है. अगर होता भी तो वहाँ नायक...नायिका के बचाव के लिए आ जाता. वो ही अपनी तरफ से मना कर देता.

पर यहाँ मेरे नायक महाशय तो बाहर बैठे लोगो के साथ लफ्ज़ी गुलछर्रे उड़ाने में मशगूल थे. और मैं सोच रही थी...पुरुषों के लिए कभी कुछ नहीं बदलता. ये मेरे घर जाते हैं...वहाँ भी यूँ ही सबके साथ बैठे हंस -बोल रहे होते हैं....और यहाँ अपने घरवालों के साथ भी...सिर्फ हम स्त्रियों को ही ये सब भुगतना पड़ता है. पता नहीं किसने पहली बार ये 'घूँघट ' जैसी चीज़ ईजाद की. वर्ना अपनी सीता..शकुंतला तो कभी घूँघट में नहीं रहीं.

यूँ ही बैठी खीझ रही थी कि चिड़ियों की तरह चहचहाता लड़कियों का एक झुण्ड आया....और मुझे घेर कर बैठ गया...उन लड़कियों ने ही घूंघट हटा दिया...थोड़ी राहत मिली...पहली बार काकी-चाची-मामी जैसे संबोधन सुनने को मिले. उनसे बातें कर ही रही थी...कि दो बच्चे बाहर से भागते हुए आए और कहा...बाहर पेड़ पर झूला लगा हुआ है.....सारी लड़कियां उठ कर भागीं...और मुझे एक धक्का सा लगा...'अब मेरे ये दिन गए" :( .

कुछ ही मिनटों बाद एक बूढी महिला ने आकर कहा..."घूँघट कर लो...कुछ गाँव की औरतें सामने खड़ी हैं." लो भाई हम फिर से कैद हो गए और बाहर की दुनिया हमारे लिए बाहर ही रह गयी....पर मेरे बचाव को आयीं मेरी एक जिठानी..नीलू दीदी...आते ही उन्होंने बिलकुल पल्ला सर से काफी नीचे खींच दिया...और पूछा..."तुम्हे गर्मी नहीं लगती...??"

मैं क्या कहती...मुस्कुरा कर रह गयी. अब चारो तरफ देखने का मौका मिला...बड़ा सा आँगन था और आँगन को चारों तरफ से घेरे हुए चौड़े बरामदे. कहीं-कहीं बरामदे का छप्पर टूट गया था और...सूरज की तेज रौशनी सीधी जमीन पर पड़ रही थी. बरामदे के कोनो में चूल्हे जले हुए थे और उस पर पूजा में चढ़ाए जाने को पकवान बन रहे थे. कई सारे चूल्हे एक साथ जल रहे थे...थोड़ी हैरानी हुई...पर समझ में आ गया. हर परिवार अलग-अलग पकवान बना रहा है..पर पूजा सम्मिलित रूप से होगी. एक जगह एक जिठानी...चूल्हे में फूंक मारती पसीने से तर बतर हो रही थीं...पर आग जल नहीं रही थीं...और उन्होंने जोर की आवाज़ अपने पति और बच्चों को लगाई.."मैं यहाँ मर रही हूँ...आपलोग बाहर बैठे गप्पे हांक रहे हैं" पति-बच्चे भागते हुए आए...और कोई चूल्हे में फूंक मारने लगा...कोई पंखे से हवा करने लगा...तो कोई चूल्हे में अखबार डालकर लकड़ियों को जलाने की कोशिश करने लगा....आज का दिन होता तो जरूर एक फोटो ले लेती...उस समय बस एक मुस्कराहट आ गयी...पूरे परिवार का मिटटी के चूल्हे की खुशामद में यूँ जुटा देख.

पर मुस्कान को तुरंत ही नज़र लग गयी...और फिर से अम्मा जी आयीं और घुटनों तक घूँघट खींच दिया..." बस एक दिन की तो बात है...गाँव का यही रिवाज़ है..."
रिवाज़ से ज्यादा यह दिखाने की चाह होती है कि शहर की हुई तो क्या...मेरी बहू सारी परम्पराएं निभाती है.

पुनः बाहर की दुनिया मेरी नज़रों से बाहर हो गयी. कोई सिद्ध आत्मा होती तो बाहर की दुनिया यूँ बंद हो जाने पर....मौके का फायदा उठा अपने भीतर झाँकने की कोशिश करती....पर मैं अकिंचन तो कुढ़ कुढ़ कर ये कीमती वक़्त बर्बाद कर रही थी.

पूरे दिन ये सिलिसला चलता रहा...नीलू दी आतीं और डांट कर मेरा पल्ला पीछे खींच जातीं..अम्मा जी आतीं और वो नीचे खींच देतीं.

(आज वे दोनों इस दुनिया में नहीं हैं...पर उनकी ये यादें साथ बनी हुई हैं....ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे)

41 टिप्‍पणियां:

  1. कभी मई-जून की गर्मी में लगन के मौसम के बीच कई ऐसे दृश्य देखे हैं जब लौटती बारात के साथ महेन्द्रा की जीप या अम्बेसेडर में ओहार (आड़) के भीतर घूंघट किये हुए दुल्हन बैठी रहती थी। गर्म मौसम में ओहार के भीतर दुल्हनें कैसे बैठती होंगी भगवान जानें।

    दूर की आई बारात के लम्बे रास्ते में कुछ दुल्हनों को रास्ते में ही उल्टी हो जाती और देवर या कोई और छोटा बच्चा बोतल में पानी लेकर दुल्हन की उस वक्त सहायता करता था।

    अब तो अच्छा है कि कुछ इलाकों में खुले मुंह से दुल्हनें विदा होने लगी हैं। इतनी बंदिश अब नहीं लगती। इसी बहाने कम से कम उनकी जान सांसत में तो नहीं पड़ती होगी।

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  2. @सतीश जी,


    गर्म मौसम में ओहार के भीतर दुल्हनें कैसे बैठती होंगी भगवान जानें।

    भगवान क्यूँ जाने.....ये वो दुल्हन बड़ी अच्छी तरह जानती होगी .

    इस बार गाँव जाएँ तो किसी भुक्त भोगी महिला से उसकी राम कहानी जरूर सुन लें..:)

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  3. ऐसे डरावने रिवाज या दिखावा जो भी है मेरी समझ के तो बाहर हैं, मुझे ये चीजें अच्छी नहीं लगतीं , सभी का कम्फर्ट पर ध्यान दिया जाना चाहिए

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  4. यह स्थिति अब भी है बिहार में. मेरी पत्नी का भी यही हाल था २००० में . मधुश्रावणी नाम है इस त्यौहार का. धीरे धीरे वे सम्मिलित आँगन ख़त्म हो रहे हैं. काश हम बचा पाते वे सौ सौ मीटर और दस घर वाले आँगन. सब खंडहर में तब्दील हो रहे हैं. हंस नहीं पा रहा हूं. क्योंकि आज ना नीलू दीदी साथ होती हैं नया अम्मा जी.

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  5. आपने लिखा हंसाने के लिए लेकिन मुझे तो घबराहट होने लग गयी

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  6. इस पोस्ट के सजीव और सुंदर विवरण ने सारे दृश्य आंखों के सामने साकार कर दिया है। कष्ट तो अवश्य ही दुल्हनों को इन प्रथाओं से झेलना पड़ता रहा है, पर आज कल इनमें बदलाव भी आने लगा है। लोग अब इन प्रथाओं में थोड़ी ढ़ील दे रहे हैं जो आवश्यक भी है। कम से कम वो पीढ़ी अब सास बन रही हैं और अपने भावी पीढ़ी को उन कष्टों से मुक्ति दे रही है।

    एक उम्दा पोस्ट जो हमें भी अतीत के सैर करा गई।

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  7. अब कभी जाड़े में घूँघट नीचे तक कर पुरानी गर्मी का बदला ले लीजियेगा।

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  8. @प्रवीण जी,

    मुंबई में जाड़ा कहाँ...बारहों महीने पंखे चलते हैं..

    जब दिल्ली में थी.... ये आइडिया मिला ही नहीं...बदले की हसरत मन में ही रह गयी..:(

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  9. अच्छा तो ई हथिन नईकी कनिया :)


    वाकई, गाँव में अपनी चाची, मामी वगैरह की हालत याद हो आई...


    ईश्वर आपकी जेठानी जी और माता जी की आत्मा को शान्ति प्रदान करे.

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  10. @समीर जी,

    पता नहीं..सही लिखा है या गलत...ये भाषा मुझे नहीं आती..

    हमारी भाषा तो भोजपुरी है...:)

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  11. बिलकुल रश्मि जी सभी दुल्हनो का एक सा ही हाल होता है एक तो गहने पहनने की आदत नहीं होती है और सबसे मुश्किल बिछिया पहनना होता है जिसे पहन कर तो दो पग चलना मुश्किल होता है फिर घूँघट तो बिलकुल करेले प् निम् चढ़ा होता है , ये पुरुष क्या जाने साडी परेशानी | घूँघट तो दूर की बात ये सारे गहने भी वो बर्दास्त नहीं कर पाएंगे | मुझे तो लगता है की जिन्हें दिल से इस परेशानी को जानना है उन पुरुषो को एक बार खुद ही पहन कर देख लेना चाहिए की कैसा लगता है क्योकि किसी और के अनुभव सुनने में वो बात कहा होगी :)))))

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  12. @ ऐसे डरावने रिवाज या दिखावा जो भी है मेरी समझ के तो बाहर हैं, मुझे ये चीजें अच्छी नहीं लगतीं , सभी का कम्फर्ट पर ध्यान दिया जाना चाहिए ????? हाय ! क्या मै लिखने वाले का नाम सही पढ़ा रही हूँ :)))

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  13. क्या कहूँ :) मैं राजस्थान से हूँ..... ये सब कुछ देखा जिया है .... बड़ी अजब हालत होती है.....

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  14. इन परम्पराओं की अपनी गरिमा भी होती है रश्मि जी...बहुत अच्छा शब्द चित्रण किया है आपने.

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  15. बहुत अच्छा लगा ... लगा सबकुछ घटित हो रहा है फिर से , लेखनी तो है ही कमाल की , आपकी यादें हमेशा एक घर दे जाती हैं

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  16. @अंशुमाला जी,

    गुड आइडिया

    पुरुष बिरादरी...अब झूठी हमदर्दी ना जताएं...

    अंशुमाला जी की सलाह पर गौर करें...और फिर सच्ची हमदर्दी जताएं :):)

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  17. OH MY GOD,
    अंशुमाला जी मुझे इस वाले कल्चर का तरफदार समझ रही थी :))

    अपने लिए तो
    रिवाज वही जो स्वास्थ्य-सुख लाये
    बाकी चीजों को टाटा टाटा-बाय बाय

    :)))

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  18. बहुत ही रोचक और जीवंत चित्रण किया है रश्मि जी आपने ! आपसे कई साल सीनियर हूँ आयु में इसलिए तुलनात्मक रूप से उतने ही साल अधिक पुरातन, अधिक परम्परावादी और अधिक रिजिड रस्मों रिवाजों के ऐसे ही कई खट्टे मीठे अनुभवों को मैन भी झेल चुकी हूँ ! आपकी स्थिति का सहज ही अनुमान लगा पा रही हूँ ! आपकी शैली इतनी सुन्दर है कि हर आलेख, संस्मरण या कहानी पढ़ कर दिल बाग बाग हो जाता है ! बहुत बहुत बधाई आपको !

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  19. "ई हथीन नइकी कनिया!"... ये बिलकुल सही है! मगर जो व्यथा आपने सुनाई वह बचपन में देखी थी.. बाद में नहीं, अपनी शादी में भी, थैंक गौड, मेरी पत्नी को भी यह सब नहीं सहना पड़ा...
    अब तो खैर बिलकुल ही खतम हो गया ये रिवाज़... वरना जब नइकी कनिया कहीं बाहर किसी रिश्तेदार से मिलने या बाज़ार घूमने जातीं तो घूंघट करती थीं और सारे मोहल्ले की औरतें तक भी एक झलक पाने को खिडकी दरवाज़े से झांकती रहती थीं.
    हमारी शादी तो जनवरी में हुई और मंडप छत पर.. हवा को कनात नहीं रोक पाता था... दुल्हन ने दो साड़ी और चादर पहन रखी थी, बेचारे दुल्हे को हवन की आग और वीडियो की लाईट का ही सहारा था..

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  20. आज की युवतियों को क्रेज भी हो सकता है घूंघट का, यह पढ़ कर.

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  21. हमें तो जी पूरा विश्वास है आपकी हर बात पर -यह समाज तो अपना जाना पहचाना समाज है ....

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  22. हमने अपने परिवार में यह सब नहीं देखा. कुछ था भी तो इतना भीषण नहीं था. मध्य प्रदेश में ही कुछ अंचलों में यह बहुत होता है पर हमारे क्षेत्र में तो नहीं.
    कुछ पुरुष कहते हैं कि घूंघट तो झीना होता है और उससे हवा आती-जाती रहती है पर यह बात गलत है. झीना घूंघट भी भीतर गर्म हवा का क्षेत्र बड़ा देता है और महिला की असुविधा बढ़ जाती है.
    अब कुछ दसियों साल के मेहमान हैं ये रीत-रिवाज़. दिल्ली में देखिये, स्टेज पर ही दुल्हनें ससुर के साथ नाचने लगीं हैं, या सच कहें तो अब ससुर ही दुल्हनों के साथ थिरकने लगे हैं. पहले तो लोग जबरदस्त लिहाज़ करते थे. इतना आगे बढ़ना भी अच्छा नहीं लगता.
    एक बात पूछना चाहता था, हांथों में वरमाला लेकर जब दुल्हन स्टेज की और आतीं हैं तो घोंघे की चाल क्यों चलतीं हैं? अपनी श्रीमती जी से पूछूंगा तो शायद वे यह कहें कि भारी-भरकम लहंगा और जेवर आदि सहेजकर चलना मुश्किल होता है... लेकिन यह तो एक्सक्यूज़ ही लगता है. और मौकों पर भी स्त्रियाँ लहंगे और जेवर पहनती हैं पर उतना धीरे नहीं चलतीं.
    खैर...

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  23. सच्चाई को बयाँ करता उम्दा आलेख. नयी पीढ़ी को ये पुराने रिवाज़ हटाने की जिम्मेदारी लेनी होगी.

    पर घूंघट की आड़ से दिलवर का दीदार तो जरूर कुछ शीतलता प्रदान कर गया होगा.

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  24. भुक्तभोगी हैं, क्या कहें , फेरे की रस्म तो बिना परदे हो गयी और विदाई के समय गज भर का घूंघट ...
    रोचक संस्मरण!

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  25. कैसी कैसी परंपरायें थीं, वर्णन अपरंपार।
    हौले हौले हट रही हैं, कुरीतियां कट रही हैं
    तज कुप्रथा जिये जिंदगी, रख शालीनता बरकरार।
    अच्छी प्रस्तुति।

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  26. @रचना जी,
    मुझे पता था....कोई ना कोई शीर्षक का उल्लेख जरूर करेगा....और अब ये बताने का वक्त आ गया कि ये शीर्षक " सतीश पंचम जी' ने सुझाया...मैने पोस्ट लिख तो ली थी..पर हिचकिचाहट सी थी...सो उन्हें ऑनलाइन देख...मैने उनसे राय ली...और शीर्षक भी पूछा..{वो अक्सर पूछती हूँ...मेरे मित्रों को पता होगा :)}

    मैने तो अपनी तरफ से शीर्षक रखा था..."घूँघट या शामत" पर सतीश जी को ये शीर्षक पसंद था...:)

    वैसे तो मैं "सुनो सबकी..करो अपने मन की ही करती रहती हूँ."..पर कभी-कभी मित्रों की बात भी सुन लेती हूँ...:)...और मैने सतीश जी से कह दिया था...किसी ने भी शीर्षक को लेकर कुछ कहा...तो कह दूंगी..."सतीश जी ने सुझाया है.." और लीजिये...कह भी दिया :):):)

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  27. हमारे हरियाणा में तो अभी तक ऐसा ही होता है । लेकिन आज पहली बार इससे होने वाली दुविधा और असुविधा को महसूस किया । शुक्र है शहरों में ऐसा नहीं होता ।
    लेकिन घूंघट का एक फायदा भी रहा । घूंघट की आड़ में हर दुल्हन सुन्दर बहुत लगती थी ।

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  28. अब देखिए न घूंघट की आड़ से ही आपने इतना कुछ देख सुन लिया। अगर घूंघट न होता तो शायद यह संस्‍मरण भी न बनता। मैं घूंघट का पक्ष नहीं ले रहा हूं।

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  29. यी घूंघट बड़ी निर्दयी होती है. बेचारी दुल्हनें !

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  30. @रचना जी,

    मैने तो ब्लोगिंग की शुरुआत ही संस्मरण लिखने से की है...और चंडीदत्त शुक्ल जो 'एक नामी कवि और पत्रकार हैं' (आजकल 'अहा जिंदगी' के फीचर सम्पादक हैं)
    उन्होंने और कुछ और लोगो ने भी...शुरुआत से ही कहा कि आप संस्मरण पर ही कंसंट्रेट किया करें...{कई बार मेरी पोस्ट पर कमेन्ट में भी कहा है)...मेरे संस्मरण वाली पोस्ट की तारीफ़ में भी काफी कुछ कहा है...जिन सबको यहाँ नहीं लिख सकती.."आखिर modesty को ताक पर नहीं रखा जा सकता ना....सब वहाँ भी ताक लेंगे...:)

    पर आपने सही कहा.."बुढ़ापा तो सच्ची आ गया....आधे पैर तो कब्र में लटके ही हुए हैं....और मेरे पैरों और कब्र के सतह की दूरी लगातार कम होती रही है....जल्दी-जल्दी बाकी संस्मरण भी लिख डालूँ..:):):)

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  31. @ लंबा घूंघट,तन मन भर जेवर,बनारसी साड़ी से लदी फंदी नईकी दुल्हन से सम्बंधित आपकी संस्मरणात्मक रचना ,

    जाके पैर ना फटी बिंवाई :)

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  32. जी हमें तो गीत याद आ गया....

    "घूँघट की आड़ से दिलबर का दीदार अधूरा रहता है"

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  33. बढि़या पोस्‍ट। इसे पढ़कर हमारे एक परिचित से जुड़ी घटना याद आ गई। ये साहब आस्‍ट्रेलिया में एक एमएनसी में कार्यरत हैं। इन्‍होंने एक आधुनिक हिन्‍दुस्‍तानी लड़की से शादी की है। साल में पन्‍द्रह दिन के लिए जब यू0पी0 में अपने गांव आते हैं, तो अपनी पत्‍नी को समझा कर लाते हैं कि समझ लो पन्‍द्रह दिन के लिए कालापानी की सजा मिल रही है। वहां वैसे ही रहना जैसे गांव का रिवाज है।

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  34. ऱ्श्मिजी आनन्‍द आ गया और वाकयी हँसी भी आ रही है। अच्‍छी रेगिंग हो गयी! पोस्‍ट लिखते हुए मैं और मेरा लिखा वाक्‍य याद आ गया यह भी अच्‍छा लगा। लोग कहेंगे कि कौन सा वाक्‍य तो लिखे दे रही हूँ - ."पहनी ओढ़ी हुई नई दुल्हन कितनी सुन्दर लगती है"...
    अरे ससुराल के किस्‍से तो हमारे भी हैं। निपट गाँव था, लेकिन हमने पार पा ली थी। सर ढकने का जरूर रिवाज था लेकिन इससे ज्‍यादा कुछ नहीं। कुछ रिवाज तो हमने ही हँसी-हँसी में समाप्‍त करा दिए थे। बढिया रहा आपका संस्‍मरण, बधाई।

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  35. उधर घूँघट की आड़ में जाने क्या हालत हुई होगी...लेकिन इधर हम हँसे फिर घबराए...फिर कुछ सोचने लगे...संस्मरण लिखना छोड़ दें क्या...... !!! :):)

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  36. सब समय का फ़ेर है, कभी घूंघट कभी सिर पर कुछ भी नहीं।

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  37. :)
    हमारे सासू माँ तो बहूऊऊऊऊत प्यारी हैं - उन्होंने तो आते ही कहा - "बहू नहीं - बेटी हो - जो करना है - करो , जैसे रहना है - रहो | बस - खुश रहो "

    तो बस - हम कर रहे हैं - बस - खुश रहते हैं | घूंघट का कोई एक्सपेरिएंस नहीं :) | एक दो बार सासु माँ की जेठानी जी (मेरी ताई सास जी ) आती थीं / हम लोग वहां जाते थे , तो पैर छूते समय सर पर पल्ला लिया | इनकी मम्मी तो मैं रोज़ पैर भी छूने जाती हूँ (जब हम वहां जाते हैं / वे हमारे पास आती हैं) तो भी uncomfortable हो जाती हैं |

    ४- ५ साल पहले punjab गए थे - तो मामा जी और सब लोग कहने लगे - ये शिल्पा तो पैर छू छू कर पैर ही घिस देगी !!

    :D

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  38. :):):):):):)
    आज पढ़ा मैंने यह पोस्ट :D

    ऐसी ऐसी पोस्ट और लिखिए न :P

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