गुरुवार, 28 जुलाई 2011

कैसा है, हमारे खिलाड़ियों का खान पान ??


हम इंग्लैण्ड से पहला टेस्ट बुरी तरह हार गए और हमारी टीम के दो खिलाड़ी इंजर्ड भी हो गए....क्रिकेट हो..या हॉकी-फुटबौल या फिर टेनिस...बार-बार हमारे खिलाड़ी घायल होते रहते हैं....ऐसा  नहीं है कि विदेशी खिलाड़ी घायल नहीं होते...फिर भी स्टेमिना में तो हमारे खिलाड़ी उनसे मात खा ही जाते हैं और ख्याल आता है....इसकी वजह कहीं बचपन और किशोरावस्था में पौष्टिक आहार की जगह, उनका साधारण खान-पान तो नहीं??

अपने 'मन का पाखी' ब्लॉग पर खेल से सम्बंधित तीन पोस्ट की एक श्रृंखला सी ही लिखी थी. दो तो पहले ही इस ब्लॉग पर पोस्ट कर चुकी हूँ....

सचिन के गीले पॉकेट्स और पचास शतक


गावस्कर के स्ट्रेट ड्राइव का राज़


आज प्रस्तुत है ये पोस्ट


एक बार लगातार चार दिन,मुझे एक ऑफिस में जाना पड़ा. वहां मैंने गौर किया कि एक लड़का 'लंच टाईम' में भी अपने कंप्यूटर पर बैठा काम करता रहता है, लंच के लिए नहीं जाता. तीसरे दिन मैंने उस से वजह पूछ ही ली. उसने बताया कि उसे कभी लंच की आदत, रही ही नहीं क्यूंकि वह दस साल की उम्र से अपने स्कूल के लिए क्रिकेट खेलता था. मुंबई की रणजी टीम में वह ज़हीर खान और अजित अगरकर के साथ खेल चुका है. (उनके साथ अपने कई फोटो भी दिखाए, उसने)क्रिकेट की प्रैक्टिस और मैच खेलने के दौरान वह नाश्ता करके घर से निकलता और रात में ही फिर खाना खाता. उसने एक बार का वाकया बताया कि किसी क्लब की तरफ से खेल रहें थे वे. वहां खाने का बहुत अच्छा इंतजाम था. लंच टाईम में सारे खिलाड़ियों ने पेट भर कर खाना खा लिया और फिर कैच छूटते रहें,चौके,छक्के लगते रहे . कोच से बहुत डांट पड़ी और फिर से इन लोगों का पुराना रूटीन शुरू हो गया बस ब्रेकफास्ट और डिनर. 


भारतीय भोजन गरिष्ठ होता है...पर उसकी जगह सलाद,फल,सूप,दूध,जूस का इंतज़ाम तो हो ही सकता है. पर नहीं ये सब उनके 'फौर्मेटिव ईअर' में नहीं होता, जब उनके बढ़ने की उम्र होती है...तब उन्हें ये सब नहीं मिलता....तब मिलता  है जब ये भारतीय टीम में शामिल हो जाते हैं.मैं यह सोचने पर मजबूर हो गयी कि सारे खिलाड़ियों का यही हाल होगा. क्रिकेट मैच तो पूरे पूरे दिन चलते हैं. अधिकाँश खिलाड़ी,मध्यम वर्ग से ही आते हैं. साधारण भारतीय भोजन...दाल चावल,रोटी,सब्जी ही खाते होंगे. दूध,जूस,फल,'प्रोटीन शेक' कितने खिलाड़ी अफोर्ड कर पाते होंगे.? हॉकी और फुटबौल खिलाड़ियों का हाल तो इन क्रिकेट खिलाड़ियों से भी बुरा होगा.हमारे इरफ़ान युसूफ,प्रवीण कुमार,गगन अजीत सिंह सब इन्ही पायदानों पर चढ़कर आये हैं.भारतीय टीम में चयन के पहले इन लोगों ने भी ना जाने कितने मैच खेले होंगे...और इन्ही हालातों में खेले होंगे.

 




क्या यही वजह है कि हमारे खिलाड़ियों में वह दम ख़म नहीं है? वे बहुत जल्दी थक जाते हैं...जल्दी इंजर्ड हो जाते हैं...मोच..स्प्रेन के शिकार हो जाते हैं क्यूंकि मांसपेशियां उतनी शक्तिशाली ही नहीं. विदेशी फुटबौल खिलाड़ियों के खेल की गति देखते ही बनती है. हमारा देश FIFA में क्वालीफाई करने का ही सपना नहीं देख सकता. टूर्नामेंट में खेलने की बात तो दीगर रही. हॉकी में भी जबतक कलाई की कलात्मकता के खेल का बोलबाला था,हमारा देश अग्रणी था पर जब से 'एस्ट्रो टर्फ'पर खेलना शुरू हुआ...हम पिछड़ने लगे क्यूंकि अब खेल कलात्मकता से ज्यादा गति पर निर्भर हो गया था. ओलम्पिक में हमारा दयनीय प्रदर्शन जारी ही है.

इन सबके पीछे.खेल सुविधाओं की अनुपस्थिति के साथ साथ क्या हमारे खिलाड़ियों का साधारण खान पान भी जिम्मेवार नहीं.?? ज्यादातर भारतीय शाकाहारी होते हैं. जो लोग नौनवेज़ खाते भी हैं, वे लोग भी हफ्ते में एक या दो बार ही खाते हैं. जबकि विदेशों में ब्रेकफास्ट,लंच,डिनर में अंडा,चिकन,मटन ही होता है. शाकाहारी भोजन भी उतना ही पौष्टिक हो सकता है, अगर उसमे पनीर,सोयाबीन,दूध,दही,सलाद का समावेश किया जाए. पर हमारे गरीब देश के वासी रोज रोज,पनीर,मक्खन मलाई अफोर्ड नहीं कर सकते. हमारे आलू,बैंगन,लौकी,करेला विदेशी खिलाड़ियों के भोजन के आगे कहीं नहीं ठहरते. उसपर से कहा जाता है कि हमारा भोजन over cooked होने की वजह से अपने पोषक तत्व खो देता है. केवल दाल,राजमा,चना से कितनी शक्ति मिल पाएगी? 



हमारे पडोसी देश पाकिस्तान में भी तेज़ गेंदबाजों की कभी, कमी नहीं रही. हॉकी में भी वे अच्छा करते हैं. खिलाड़ियों की मजबूत कद काठी और स्टेमिना के पीछे कहीं उनकी उनकी फ़ूड हैबिट ही तो नहीं...क्यूंकि वहाँ तो दोनों वक़्त ... नौन्वेज़ तो होता ही है..खाने में है.

प्रसिद्द कॉलमिस्ट 'शोभा डे' ने भी अपने कॉलम में लिखा था कि एक बार उन्होंने देखा था ३ घंटे की  सख्त फिजिकल ट्रेनिंग के बाद खिलाड़ी.,फ़ूड स्टॉल पर 'बड़ा पाव' ( डबल रोटी के बीच में दबा आलू का बड़ा ,मुंबई वासियों का प्रिय आहार) खा रहें हैं.  इनसबका ध्यान खेल आयोजकों को रखना चाहिए...अन्य सुविधाएं ना सही पर खिलाड़ियों को कम से कम पौष्टिक आहार तो मिले.

स्कूल के बच्चे 'कप' और 'शील्ड' जीत कर लाते हैं.स्कूल के डाइरेक्टर,प्रिंसिपल बड़े शान से उनके साथ फोटो खिंचवा..ऑफिस में डिस्प्ले के लिए रखते हैं. पर वे अपने नन्हे खिलाड़ियों का कितना ख़याल रखते हैं?? बच्चे सुबह ६ बजे घर से निकलते हैं..लम्बी यात्रा कर मैच खेलने जाते हैं..घर लौटते शाम हो जाती है.स्कूल की तरफ से एक एक सैंडविच या बड़ा पाव खिला दिया और छुट्टी. मैंने देखा है,मैच के हाफ टाईम में बच्चों को एक एक चम्मच ग्लूकोज़ दिया जाता है, बस. बच्चे मिटटी सनी हथेली पर लेते हैं और ग्लूकोज़ के साथ साथ थोड़ी सी मिटटी भी उदरस्थ कर लेते हैं. बच्चों के अभिभावक टिफिन में बहुत कुछ देते हैं अगर कोच इतना भी ख्याल रखे कि सारे बच्चे अपना टिफिन खा लें तो बहुत है. पर इसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता. बच्चे अपनी शरारतों में मगन रहते हैं.और भोजन नज़रंदाज़ करने की नींव यहीं से पड़ जाती है. यही सिलसिला आगे तक चलता रहता है.

अगर हमें भी अच्छे दम-ख़म वाले मजबूत खिलाड़ियों की पौध तैयार करनी है तो शुरुआत बचपन से ही करनी पड़ेगी...ना कि टीम में शामिल हो जाने के बाद.

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

वो धूसर सी मटमैली शाम...

मुंबई, शोर का शहर......जिंदगी भागती सी ही नज़र आती है...पर इसी मुंबई में एक जगह ऐसी भी है....जहाँ जिंदगी थम गयी सी लगती है. पर ये स्थान भी मुंबई का ही एक हिस्सा है , यकीन करना मुश्किल .

यहाँ  कोई आवाज़ ही नहीं.....लोग किसी स्टेच्यु की तरह अपनी स्थान पर ही टिके हुए थे....पास वाली की उपस्थिति से अनजान...अपने ही खयालो में मुब्तिला .....सामने आकश में छाए बादल और ठांठे मारते समुद्र के पानी का रंग भी धूसर सा उदास लग रहा था....जैसे अंदर बैठे लोगो की मनःस्थिति को परिलक्षित कर रहा हो. बारिश के मौसम ने समुद्र  तट पर दूर तक कीचड़ का दलदल फैला दिया  था...जिसे पार कर खुले समुद्र की लहरों तक पहुंचना नामुमकिन सा लग रहा था....ICU यूनिट के बाहर शांत-निश्चल बैठे लोगों को भी अपने परिजनों की स्थिति किसी दलदल में फंसी सी ही लग रही थी..जिस से उनके सही सलामत   उबर आने के लिए सबो के लब पर प्रार्थना थी और डॉक्टर  के दल पर अटूट विश्वास.

पर आज चैतन्य मन से इन सबकी स्थिति का अवलोकन भी मैं इसलिए कर पा रही थी क्यूंकि ICU में भर्ती मेरे भतीजे के स्वास्थ्य में सुधार था...वह खतरे से बाहर था और डॉक्टर ने सिर्फ ऑब्जरवेशन के लिए ICU में रखा हुआ था...वर्ना दो रात पहले मुझे भी अपनी ही खबर नहीं थी....टाईफायड भी इतना खतरनाक  रूप ले सकता है...किसने सोचा था...भतीजे,सनी की पुणे की नई-नई नौकरी लगी...३ जुलाई से सनी को बुखार आने लगा...वो मेरे पास,मुंबई आ गया...यहाँ डॉक्टर ने सारे टेस्ट  करवा कर बताया टाईफायड है..दवा शुरू हो गई....७ जुलाई  को सनी को काफी आराम लगा...बुखार भी कम था...खाना भी अच्छी तरह खाया...टी.वी. देखा...पर अगले  दिन से उसके मोशन में रक्त आने लगा....डॉक्टर ने कहा,टाईफायड में ऐसा होता है...घबराने की बात नहीं...पर कमजोरी की वजह से एडमिट करने की सलाह दी...लेकिन  रात के बारह बजे से उसे जो रक्तस्त्राव शुरू हुआ...कि डॉक्टर -नर्स...हम सब , अपने पंजों पर ही खड़े रहे...डॉक्टर ने कुछ लाइफ-सेविंग ड्रग्स आजमाईं पर  कोई असर नहीं...अब इस हेवी ब्लड लॉस की  वजह से  खून चढ़ाया जाने लगा...और डॉक्टर ने कह दिया...इसे किसी बड़े अस्पताल में शिफ्ट करना होगा.

पतिदेव ने कहा...इसके घरवालों को खबर कर दो...पर खबर करूँ तो किसे??...पिता को ये किशोरावस्था में ही खो चुका था....अकेली माँ....इसके मामा के यहाँ गयीं हुईं थीं...और घर पर सिर्फ मेरे बूढे मौसी-मौसा...मोबाइल पर दोनों के नंबर बारी-बारी से देखती पर कॉल बटन प्रेस करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती...नर्सिंग होम के कॉरिडोर में एक मद्धम सी बत्ती जल रही थी...थोड़ी दूर पर एक  नर्स उंघती सी बैठी थी....सारे पेशेंट सो रहे थे...पति और बेटा भी चुप से बैठे थे...थोड़ी -थोड़ी देर में डॉक्टर अपने कमरे से बाहर आते...'सनी' को चेक करते...कभी नर्स को किसी इंजेक्शन देने के लिए कहते ...कभी पतिदेव को कोई परचा थमाते..."ये इंजेक्शन लेकर आइये"...पतिदेव...बेटे के साथ भागते हुए बाहर की  तरफ बढ़ जाते ...और मेरे नंगे पैर के नीचे की ठंढी जमीन थोड़ी और ठंढी हो मेरा खून सर्द किए जाती..और मैने मोबाईल नीचे रख दिया...उनलोगों को मैं क्या बताउंगी...और वे कितना समझ पायेंगे...सोच लिया,अब सुबह ही खबर की  जायेगी. 

पर वैसी सुबह तो किसी के जीवन में कभी ना आए...डॉक्टर ने सिर्फ दो,चार हॉस्पिटल  के नाम ही बताए...और कहा..तीन-चार घंटे के अंदर इसे वहाँ शिफ्ट कीजिए......पर बड़े हॉस्पिटल में बेड मिलने की सबसे बड़ी परेशानी होती है..कई फोन खटकाये गए....और लीलावती में सनी एडमिट  हो गया....यहाँ भी डॉक्टर के दल ने पहले तो दवा के सहारे ही इलाज़ की कोशिश की...लेकिन कोई फायदा ना होते देख...colonoscopy करनी पड़ी. और पता चला...छोटी आंत में कई ulcers हैं. उसमे से ही कुछ फट गए हैं..जिसकी वजह से इतना रक्तस्त्राव हो रहा है. ulcers का इलाज़ किया गया...और सनी ठीक होने लगा...भाभी  भी पहले तो आठ घन्टे का सफ़र कर बनारस पहुंची...फिर बनारस से पांच घंटे की फ्लाईट से मुंबई...

तीन दिन के जागरण  के बाद....आज मन कुछ शांत था....और अपने आस-पास देखने का होश था. अब लोगो के ग़मगीन चेहरे देख यही सोच रही थी...ईश्वर इनके परिजनों को भी स्वस्थ कर इनके चेहरे से ये गम की छाँव हटा...मुस्कान की धूप खिला दे. पास की ही कुर्सी पर सत्रह -अट्ठारह साल का एक किशोर हाथ में पानी की बोतल लिए बैठा था.उसने पीठ पर से बैग भी नहीं उतारे थे. शायद उसका पहला अनुभव था...सहमा सा...इस वातावरण में खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहा था...जरूर उसके भी परिजन...स्वस्थ हो वार्ड में शिफ्ट होनेवाले होंगे..वर्ना घरवाले किसी जिम्मेदार व्यक्ति को ही भेजते.. सामने उद्विग्न सा एक व्यक्ति कभी बैठता कभी उठ कर टहलने लगता....उसके चेहरे ,हाव-भाव से दुख से ज्यादा परेशानी झलक रही थी.,..शायद प्रेम से ज्यादा कर्तव्य की भावना प्रबल थी. एक कोने में बुर्के में एक महिला...बार-बार बाथरूम जाती और सूजी हुयी लाल-आँखे लिए कोने की तरफ मुहँ करके बैठ जाती...मन होता एक बार उसके कंधे पर हाथ रख...उसका दुख बांटने की कोशिश की जाए...पर फिर उसका कोने में यूँ, मुहँ करके बैठना ही इस बात का संकेत दे जाता  कि वो किसी से बात करने की इच्छुक नहीं है. जरूर  कोई बहुत ही अज़ीज़ होगा...फर्श पर ही दीवार से टेक लगाकर, एक युवक  बैठा था....सफाचट सर....ठुड्डी पर सिर्फ थोड़ी सी दाढ़ी...कानो में छोटी छोटी बालियाँ ....दोनों बाहँ पर बड़े से टैटू...छोटी बाहँ की टी-शर्ट और शॉर्ट्स में किसी फिल्म का विलेन ही लग रहा था. पर चेहरे के भाव उसके इस रूप से बिलकुल मेल नहीं खा रहे थे....माँ बीमार थी...और वो एक छोटा सा घबराया सा बच्चा दिख रहा था....एक स्मार्ट सी लड़की...जींस टॉप पर एक स्टोल डाले एक मोटी सी किताब पढ़ने में तल्लीन थी....उसके सिमट कर सीधे बैठने के तरीके से लग रहा था...उसे ज्यादा चिंता नहीं है....उसका भी कोई अपना...ऑब्जरवेशन के लिए ही होगा...ICU में. तभी उसे मैचिंग स्टोल लेने का भी ध्यान रहा...पर थोड़ी देर में ही स्टोल लेने का कारण पता चल गया....उसने स्टोल खोलकर शॉल की तरह ओढ़ लिया...ए.सी. की ठंढक बढती जा रही थी.
एक दूर किसी शहर से आए सज्जन ऐसे थके हारे से बैठे थे मानो...सबकुछ भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है...एक साहब एक कोने में लगातार  फोन पर ऑफिस की समस्याएं सुलझाने में लगे थे...अपनी टाई तक ढीली नहीं की थी...कभी-कभी उनकी आवाज़ तेज़ हो जाती...और बंद शीशे से घिरे उस हॉल में उनकी आवाज़ गूँज जाती तो खुद ही चौंक कर चुप हो जाते. एक तरफ तीन महिलाएं और एक पुरुष पास-पास बैठे थे..चेहरे पर  चिंता की लकीरें...और भीगी आँखे लिए...जैसा कि आए दिन मुंबई के अखबारों में पढ़ने को मिलता है,...पांच दोस्त..(तीन लड़के और दो लडकियाँ) कार लेकर बारिश के मौसम का आनंद  लेने निकल पड़े....और किसकी गलती थी...क्या हुआ...पर कार दुर्घटनाग्रस्त हो गयी....एक बच्चे ने तो वहीँ दम तोड़ दिया...बाकी चार  भी गंभीर रूप से घायल  हो गए...माता-पिता..चिंताग्रस्त सर झुकाए बैठे थे.

गार्ड के पास, एक विदेशी महिला,उसे कुछ समझाने की कोशिश कर रही थी..पर शायद  वो उसकी बता नहीं समझ पा रहा था...जबकि 'लीलावती ' के सारे स्टाफ अंग्रेजी समझ  तो लेते ही थे..कामचलाऊ बोल भी लेते थे...आखिर हताश होकर उसने खीझकर पास ही खड़ी एक लड़की से कहा......".वाई इज ही नॉट लिसनिंग टू मी??" ..उस लड़की ने महिला और गार्ड दोनों के बीच दुभाषिये का काम किया....और उस विदेशी महिला को समझाया कि वो आपका उच्चारण नहीं समझ पा रहा . फिर जैसे ही  उस लड़की ने पूछा..".हाउ इज योर हसबैंड?" वो महिल फूट-फूट कर रो पड़ी...एक अनजान देश...अनजान भाषा...अनजान चेहरे के बीच जिस व्यक्ति के भरोसे आई  थी...वही जीवन और मौत के बीच झूल रहा था..(लेकिन दूसरे दिन जब उस महिला को मुस्कुराते हुए...हाथ में एक पानी की बोतल थामे तेजी से आते देखा...तो लगा...अब उसके पति का स्वास्थ्य जरूर सुधर रहा होगा...)

 माहौल ऐसा ही शांत था...बाहर फैली हल्की मटमैली सी शाम अब गाढे अँधेरे में तब्दील हो रही थी...समुद्र के पानी का रंग  भी किसी काढ़े के रंग सा लगने लगा था...ऐसे में ही पेशेंट को लानेवाली लिफ्ट का दरवाजा खुला...और कुछ लोग भागते हुए एक बेड लेकर आए पर बेड तो खाली नज़र आ रहा था...तभी पास से बेड गुजरा और उस पर एक तीन साल की बच्ची बेसुध पड़ी थी...सबके मुहँ से एक आह निकल गयी...और सबकी दुआओं का रुख उस मासूम  बच्ची की तरफ मुड गया. 
अब तक,वो जरूर अच्छी हो गयी होगी.

इस दरम्यान कुछ अजीबो-गरीब अनुभव भी हुए....अक्सर लोगो से रोजमर्रा की बातें होती है..मौसम..पास-पड़ोस...घर-परिवार की..पर जब कुछ अप्रत्याशित घट जाता है..तो लोगो की सोच अलग सी नज़र आने लगती है. लोगो के फोन आते..."अरे तुम लोगो ने स्थिति संभाल ली...वर्ना अपने बच्चे के लिए कोई कुछ भी कर ले...दूसरे के बच्चे के लिए निर्णय लेना मुश्किल होता है..." अपना या दूसरे का बच्चा!!!....उस वक़्त तो सिर्फ एक बीमार बच्चा सामने दिखता है...और यही कोशिश होती है कि...उसे बेस्ट ट्रीटमेंट दिलवाने की कोशिश में कोई कसर ना रह जाए....कोई सनी का हाल पूछता....और एक पंक्ति के बाद ही शुरू हो जाता..." ये सुनकर तो इतनी घबराहट हुई...मेरे तो हाथ-पाँव कांपने लगे...बुखार चढ़ आया...चक्कर आने लगे" और मैं सनी का हाल बताने की बजाय...उन्हें ही अपना ध्यान रखने की सलाह देने लगती. कोई कहता,'तुम्हारे घर बीमार होकर आया....भगवानका शुक्र है..अच्छा हो गया..." अच्छा है..मैं ज्यादा नहीं सोचती...ये सब कभी दिमाग में आया भी नहीं...और आता भी कैसे..डॉक्टर ने भले ही कह दिया था...तीन-चार घंटे के अंदर किसी तरह बड़े अस्पताल में शिफ्ट कीजिए...cardiac ambulance  की व्यवस्था की  जिसमे एक डॉक्टर मौजूद था, खून और पानी चढाने की व्यवस्था थी... सनी का हिमोग्लोबिन ५% पर आ गया था. पर सनी की चंचलता वैसे ही कायम थी..स्ट्रेचर पर उसे cardiac ambulance  में लाया गया...और उसने एम्बुलेंस  के अंदर से  से चिल्ला कर बोला..."बुआ, मेरी चप्पल वार्ड में ही छूट गयी है...मंगवा  लेना"

दो पंक्तियों में 'लीलावती हॉस्पिटल' के डॉक्टर नर्स का आभार व्यक्त करना भी बहुत आवश्यक  है....वहाँ के डॉक्टर, नर्स को अब स्पेशल ट्रेनिंग दी जाती है...या वे एक दूसरे को देख कर सीखते हैं...पर बहुत ही नम्र...हमेशा होठों पर मुस्कान...बेहद एफिशिएंट और आशावादी......और हर डॉक्टर का व्यवहार  बिलकुल परिवार के एक सदस्य जैसा था...
उनकी कोशिशों से ही सनी इतनी जल्दी घर आ पाया...अब ,उसकी मम्मी भी साथ हैं...सूप...जूस..परहेजी खाना चल रहा है....उसकी तीमारदारी में ही इतने दिनों लगी  हुई थी ..ना कुछ लिखना हुआ...ना किसी के ब्लॉग पर जाना ही हुआ...अब जिंदगी पुरानी रूटीन पर लौट रही है...पर थोड़ी धीमी गति से....

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

हाय!! मेरी आधा किलो भिन्डी :(

जैसा कि मैने पिछली पोस्ट में जिक्र किया था....एक शाम एक फोन आया कि "हम एक न्यूज़ चैनल से बोल  रहे हैं...गैस सिलेंडर की बढ़ी हुई कीमत पर आपकी प्रतिक्रिया चाहिए...कल आपके घर आ  जाएँ, आपके विचार जानने ?"....ऐसे अचानक किसी को भी फोन आए तो उसे उलझन होगी..मुझे भी हुई...और मैने असमर्थता जता दी...कि "मैं तो सिलेंडर इस्तेमाल ही नहीं करती...हमारे यहाँ...गैस की पाईपलाइन है....कैसे अपनी प्रतिक्रिया दूंगी.??"

उधर से स्वर में अतिशय विनम्रता घोल,  फोन करने वाले ने  कहा, " गैस के दाम बढ़ने से, गैस पाइप  लाइन के भी चार्ज बढ़ जाएंगे...उसके बिल पर भी असर पड़ेगा....आप अपने विचार बताइए" एक तो मुंबई में रहकर कान विनम्र स्वर सुनने के आदी  नहीं रहे...समय लगता है प्रकृतस्थ  होने में. एक बार यूँ ही एक फ्रेंड को अल्मोड़ा में फोन किया था और उसकी माता जी ने प्यार से कहा.." वो तो घर पर नहीं है...आपका शुभनाम बेटे " मैं एक  मिनट को कुछ बोल ही नहीं पायी...

यहाँ तो कहेंगे.."आप कौन?" अंग्रेजी में तो लगता है...डांट ही रहे हों.."हूss इज  दिस?"

मैने भी स्वर थोड़ा नम्र किया और पूछा, "आपको मेरा नंबर कहाँ से मिला?" क्यूंकि तब पतिदेव टी.वी. चैनल की नौकरी  छोड़ चुके थे...वैसे भी किसी चैनल में काम करने वालों के परिवार वाले इस तरह, कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले सकते. उसके ये कहने पर मेरे बॉस  ने दिया है..मैने उसके बॉस से बात की...और वे एक दूर के रिश्तेदार निकले. कहने लगे.."एक हफ्ते पहले ही मुंबई ट्रांसफर हुआ है...किसी गृहणी की प्रतिक्रिया लेनी थी...मैं और किसी को जानता नहीं..इसलिए आपका नंबर दे दिया"

 मैने उनसे भी अपनी मजबूरी जताई, " हमारे यहाँ तो गैस की पाईपलाइन है....गैस का सिलेंडर हम नहीं लेते तो कैसे अपनी प्रतिक्रिया दें? "
और उन्होंने भी वही कहा जो उनके असिस्टेंट ने कहा था.

"ठीक है..पर पहले इनसे पूछ लूँ..." (ऐसे समय आदर्श भारतीय  नारी का अवतार धारण करना बड़ा काम आता है )....मुझे पूरी उम्मीद थी कि नवनीत मना कर देंगे क्यूंकि टी.वी.चैनल में उनकी जॉब के दौरान बच्चों  को कई बार सीरियल्स में काम करने के ऑफर मिले थे...पर उनके पिताश्री ने तो सख्ती से मना कर ही दिया था...मुझे भी  मंज़ूर नहीं था . अक्सर देखा है...जिसने भी बचपन में एक बार कैमरे का सामना  किया...उसके जीवन का लक्ष्य फिर 'स्टार' बनना ही रह जाता है. बाल-कलाकार  किन हालातों में काम करते हैं...यह भी बहुत ही करीब से जाना है. एक अवार्ड शो में छोटे बच्चों के नृत्य का कार्यक्रम था और रात के एक बजे 7,8 साल के बच्चे भारी पोशाक और जेवर  से लदे उनींदे से ग्रीन रूम के बाहर पतले से कॉरिडोर में अपनी बारी का इंतज़ार करते फर्श पर बैठे  हुए थे.
एक बार एक रोचक बात हुई...एक सीरियल निर्माता ने लैंडलाइन पर फोन किया..मेरे बेटे ने उठाया ..उन्होंने बेटे से नाम  पूछा...थोड़ी बात की..और कहा.."मेरे सीरियल में काम करोगे?"  उसने मासूमियत से कहा, "पर मैं तो स्कूल जाता हूँ"

हालांकि यहाँ सिचुएशन अलग थी पर मुझे लगा कि नवनीत मना कर देंगे. लेकिन उन्होंने कहा.."इसमें क्या है...आने दो..घर पर"

लेकिन हम तो सिलेंडर खरीदते ही नहीं .." मैने पिटा पिटाया जुमला दुहरा दिया..पर पतिदेव का तर्क अलग था, "इतने ध्यान से कौन देखता है...उसे जरूरत है...आ जाने दो"

उस लड़के ने अपना नंबर दिया था...कि निर्णय ले लूँ तो कॉल बैक करूँ...पर मैने नहीं किया....सोचा..शायद उसे कोई और मिल जाए तो अच्छा....जब सामने पड़ जाए तो ये सब एक झंझट सा ही लगता है (मुझे तो लगा था )

 

पर रात के ग्यारह बजे उसका फोन आया और मैने 'हाँ' कर दी. अब, जब उसने कहा..."सुबह नौ बजे आ जाऊं??" तो मैं बुरी तरह घबरा गयी और  एकदम से ना कर दी...फिर बात को थोड़ा संभाला, "सुबह बहुत काम होता है..आप एक बजे तक आ जाइए. उसने अपनी मजबूरी जताई..." हमें न्यूज़ तैयार कर दिल्ली भेजना  होता है...ग्यारह बजे तक आऊंगा  "

किसी भी महिला को जब किसी के आगमन की खबर मिलती है..तो उसका दिमाग कई मोर्चो पर एकसाथ सक्रिय हो जाता है...कमरा  ठीक करना है..सुबह जल्दी से किचन का काम निबटाना है...कहीं कामवाली आने में देर ना कर दे...और इसके ऊपर , यहाँ क्या  बोलना है...ये भी सोचना था.

 

उसने कहा था...बच्चों से भी  बात करेगा क्यूंकि बजट का असर उनके पॉकेट मनी पर भी तो पड़ेगा (ये उसका तर्क था ) पर बच्चे तो सो चुके थे...छुट्टियाँ चल रही थीं..उन्हें भी सुबह जल्दी उठा कर तैयार होने को कहना पड़ेगा. उसने तो पतिदेव के लिए भी  कहा था,"सर भी रहते तो अच्छा था..." पर इन्होने एकदम से कन्नी काट ली..कि "मुझे जल्दी ऑफिस जाना है "(राम जाने, सच या झूठ )

सुबह तो, मैं जैसे मशीन ही बनी हुई थी...बच्चों को भी बता दिया...और कह दिया..तुमलोग खुद सोच लो..क्या कहना होगा अब मेरे पास टाइम नहीं है...कोई सलाह देने के लिए .
शुक्र था, सारे काम ग्यारह बजे तक ख़त्म हो गए और ठीक ग्यारह बजे, मेरे फ़्लैट की घंटी बजी.

कैमरामैन के साथ एक जाना-पहचान चेहरा था {अब नाम नहीं याद } पहले तो वे लोग कैमरे का एंगल देखते रहे...किधर से लेना है..कैसे लेना है...फिर मुझसे कहा, आप कुछ सब्जी काटते रहिए...उसी दरम्यान आपसे सवाल पूछेंगे. शुक्र था फ्रिज में भिन्डी पड़ी हुई थी,वर्ना लौकी काटना कुछ अजीब लगता ....मैं  थोड़ी सी भिन्डी ले आई...और उसने अपने अंदाज़ में पहले तो कहा..."आज हम रश्मि जी के  घर पर हैं..आइये इनसे जाने कि सिलेंडर के दाम बढ़ जाने से इनके घर के बजट पर क्या असर पड़ेगा ?? आदि....आदि.."....

और मैं शुरू हो गयी..."गैस के दाम  बढ़ने से बहुत कुछ सोचना पड़ेगा...रोज़ स्वीट डिश बनती  थी. अब हफ्ते में एक बार ही बनानी पड़ेगी ...मेहमानों को बुलाने के पहले सौ बार सोचेंगे....पत्ते वाली सब्जी भले ही गुणकारी हो..पर ज्यादा गैस खर्च होती है इसलिए अब नहीं बना सकूंगी..वगैरह...वगैरह..."


पर कैमरामैन ने कहा...ये एंगल ठीक नहीं था...फिर से बोलिए...उसके बाद ये सिलसिला चलता रहा...कभी एंकर ज्यादा झुक जाए...कभी कोई तार फंस जाए...कभी..मेरी भिन्डी फोकस में नहीं आए...और रिटेक होते रहे. इस 4-5 लाइन के लिए 9 रिटेक हुए. और अब समझ में आया कि जब हम सुनते हैं...'किसी फिल्म के फलां सीन के लिए इतने रिटेक हुए तो यही लगता है...कलाकार ने अच्छी एक्टिंग नहीं की...पर कई बार रिटेक के कई अलग-अलग  कारण ही होते हैं.


बस बुरा ये हुआ कि इस चक्कर में मेरी आधा किलो  भिन्डी कट गयी....और भिन्डी  हमेशा धोकर काटी जाती है {कितने पुरुष ब्लोगर्स को ये पता है?
} जबकि मैं तो यूँ ही फ़िज़ में से निकाल कर ले आ रही थी..लिहाज़ा सारी कटी हुई भिन्डी फेंकनी पड़ी
अब बच्चों की बारी थी....बच्चे तो पैदाइशी  अभिनेता होते हैं..मैं तो उनके उत्तर सुनकर हैरान रह गयी. बड़े बेटे ने कहा, " मैं 'बस' से कोचिंग क्लास जाता हूँ...पहले 'बस' आने में देर होती थी तो ऑटो-रिक्शा से आ जाता था. अब तो कितनी भी देर हो, 'बस' का ही इंतज़ार करना पड़ेगा. "

छोटे बेटे ने कहा, "पहले मैं पॉकेट  मनी से पैसे बचाकर शटल कॉक खरीद लेता था...पर अब पॉकेट मनी कम मिलेगी तो शटल कॉक नहीं खरीद पाऊंगा..टूटे हुए शटल कॉक से ही खेलना पड़ेगा "

इनलोगों के भी कई रिटेक हुए..और आखिरकार ढाई  बजे शूटिंग संपन्न हुई.

एक घंटे बाद स्टूडियो से उन रिश्तेदार सुरेश (नाम बदल हुआ है ) का फोन आया..."आपने तो बहुत अच्छा बोला है...अक्सर हाउस वाइव्स बोलने में अटक जाती हैं...हमें एक वाक्य पूरा करने को कॉपी पेस्ट करना पड़ता है".

 मैने कहा, 'शायद मुझे भूल  गए हैं..एक बार बोलना शुरू करूँ..तो फिर बस एडिटिंग का ही चांस बचता है   { इस ब्लॉग के पाठक भी यह बात बखूबी जानते होंगे } किसी ने मेरे लिए लिख भी दिया था..जाने किस खदान से बातें खोद कर लाती है और हम पर उड़ेलती  रहती है   how true 
 

हमेशा की तरह रिश्तेदारों - दोस्तों को  फोन मिला दिया सबने देखा  और फिर उलाहने भी दिए...'ठीक है बाबा...इतना मत सोचो...नहीं आएँगे तुम्हारे घर "
 

{ ये सब बातें..इसलिए लिख दीं...क्यूंकि ये कोई रहस्य नहीं है..सबको अंदाज़ा है कि टी.वी. पर अक्सर ऐसा दिखाते रहते हैं...)

सोमवार, 4 जुलाई 2011

बिजली की तरह कौंध कर विलुप्त हो जाते, वे पल....

आजकल गैस सिलेंडर की कीमत में बढ़ोत्तरी चर्चा का विषय बनी हुई है.  कुछ साल पहले भी सिलेंडर के दाम बढे थे और सबके साथ मैं भी परेशान हो गयी थी...बस ये बात दीगर है कि मेरी परेशानी का सबब कुछ और था. एक शाम  यूँ ही चैनल सर्फ़ कर समय काट रही थी कि एक फोन आया..."हम एक न्यूज़ चैनल से बोल  रहे हैं...गैस सिलेंडर की बढ़ी हुई कीमत पर आपकी प्रतिक्रिया चाहिए...कल आपके घर आ जाएँ, आपका इंटरव्यू लेने?"...मैं तो एकदम से चौंक पड़ी....और यकीन मानिए...यूँ अप्रत्याशित रूप से टी.वी. पर पल भर के लिए ही सही....कुछ बोलने का अवसर ख़ुशी से ज्यादा घबराहट दे जाता है.

जबकि ये पहला मौका नहीं था...कई बार 'पलक झपकाई और गायब' (blink n miss) जैसे अवसर मिलते रहे हैं. कुछ साल पहले पतिदेव Zee t.v. में कमर्शियल वी.पी. के रूप में कार्यरत थे
एक दिन ऑफिस से आए तो मुझे कुछ लिफाफे थमाते हुए कहा, "'गजेन्द्र सिंह' ने 'सारेगामा' प्रोग्राम की रिकार्डिंग  के कुछ पास दिए हैं...आस-पड़ोस में जिसे देना  हो दे देना. "

मैने ऐलान कर दिया....'मैं भी जाउंगी'...पतिदेव  को कुछ आश्चर्य तो हुआ क्यूंकि उन्हें लगता था...'इसमें देखने जैसा क्या है'...साथ काम करनेवालों के लिए सबकुछ बहुत आम होता है.

नियत दिन पर, मैं अपने कुछ रिश्तेदारों सहेलियों के साथ सारेगामा की रिकॉर्डिंग पर गयी. कई बार कैमरे के हद में भी आए हम सब...दूर-दराज़ के नाते-रिश्तेदार टी.वी. पर हमारी झलक देख बड़े  खुश भी हुए. पर मैने तौबा कर ली...क्यूंकि आधे घंटे की रेकॉर्डिंग 3 घंटे में संपन्न हुई...उस तेज रौशनी में चुपचाप एक जगह इतनी देर बैठे रहना एक सजा से कम नहीं लगा. हालांकि कई बातें भी पता चलीं...कि ये स्क्रीन पर  तिरंगा झंडा, फहराता हुआ कैसे दिखता  है. झंडे के नीचे एक पेडस्टल फैन लिटा कर रखा जाता है.

उम्रदराज़  महिलाएँ  'सोनू निगम ' की जबरदस्त प्रशंसक निकलीं . रिकॉर्डिंग शुरू होने में देर होने लगी ..तो वे लोग जोर से आवाजें लगा रही थीं...कि "बस सोनू निगम को बाहर भेज दो...हमलोग एक झलक देख चले जाएंगे..सिर्फ उन्हें देखने ही आए हैं." सोनू निगम ने एक इंटरव्यू में कहा भी था...कि "मेरे पास सबसे ज्यादा पत्र आंटियों के आते हैं...सब मुझे अपना दामाद बनाना चाहती हैं"

इसके बाद कुछ स्पेशल प्रोग्राम और zee awards...वगैरह देखने ही जाया करती थी. कई बार हम देखते हैं, दो एंकर में से कोई एक ही बोलता जाता है..देखनेवालों को लगता है...दूसरे को बोलने का अवसर ही नहीं मिल रहा जबकि असलियत कुछ और होती है. एक प्रोग्राम में ,पल्लवी जोशी के साथ एक मेल एंकर था...वो बार बार अपनी पंक्तियाँ  भूल जा रहा था...और मजबूरी में शो को संभालने के लिए पल्लवी जोशी को उसकी पंक्तियाँ  भी बोलनी पड़ रही थीं. दोनों के मेकअप मैन और हेयर ड्रेसर स्टेज के किनारे ही खड़े थे...एक डायलॉग  ख़त्म होता...और वे दौड़ कर उनके बालों पर ब्रश  और चेहरे पर पाउडर  की परत फेर जाते.

पर किसी भी 'लाइव शो' से 'अवार्ड शो' के रिहर्सल देखना ज्यादा अच्छा लगता. सिर्फ Zee t.v. में काम करनेवालों के परिवार ही होते दर्शकों  में. स्टार्स भी बिना किसी मेकअप के होते और रिहर्सल के बाद बिना किसी नाज़ ,नखरे के हमारे बीच आ कर बैठ जाते. एक शो के पीछे कितनी मेहनत लगती है...वो प्रत्यक्ष देखे बिना नहीं जाना जा सकता. पूरी रात रिहर्सल चलती थी. ज्यादातर उस टीम में लडकियाँ ही होतीं .मैं  तो हैरान रह जाती ,"ये लोग घर कब जाएँगी?" परदे के पीछे से काम करनेवाले अपनी भूख-प्यास-नींद त्याग हफ़्तों से लगे होते. और ये कलाकार भी एयरपोर्ट से सीधा रिहर्सल के लिए आते..कोई रात के दो बजे...कोई सुबह चार बजे.
पर पैसे भी तो लाखो में लेते हैं ये लोग. एक बार एक मजेदार बात हुई.. धुलने में डालने से पहले पतिदेव के पैंट के पॉकेट चेक कर रही थी...उसमे से एक पुर्जा निकला,जिसपर लिखा था...शाहरुख- 80....सलमान-70....माधुरी- 75....करिश्मा -50..अक्षय-50... गोविंदा -- 20  ...पहले तो समझ में नहीं आया..फिर पता चला...ये सब उस अवार्ड शो में भाग लेने की उनकी फीस है, जो लाखो में है.  गोविंदा की फीस सबसे कम थी..जबकि सबसे ज्यादा entertaining गोविंदा ही होते  थे.

एक बार एक म्युज़िक अवार्ड में गयी थी. शो शुरू होने में कुछ वक्त था...कई गायक-गीतकार आ चुके थे...अलका याग्निक...उदित नारायण...जावेद अख्तर और शबाना  आज़मी  ठीक मुझसे अगली पंक्ति में बैठे थे...कई लोग जाकर उनसे बातें कर रहे थे..अपनी मोबाइल से तस्वीरें ले रहे थे...पर मैं संकोच के मारे अपनी जगह से उठी ही नहीं..दरअसल  पतिदेव के डिपार्टमेंट के लोग आस-पास ही चक्कर लगा रहे थे..शायद यह देखने को..."जिस बॉस से वे लोग इतना डरते हैं....वे बॉस किस से डरते हैं {ये बस एक डायलॉग था ...मुझसे कोई नहीं डरता.. }

एक और रोचक बात हुई...कैमरामैन ने शायद मुझे भी कोई सेलिब्रिटी समझ लिया...और कई बार उस प्रोग्राम के दौरान मेरा क्लोज़अप  लिया. बड़ी सी स्क्रीन पर जब ना तब मेरा चेहरा भी दिख जाता.
मुझे पूरा विश्वास था कि जब एडिटिंग के वक़्त पता चलेगा....कि ये कोई सेलिब्रिटी नहीं हैं..तो  जरूर कैंची चल जाएगी. इसीलिए किसी को भी नहीं बताया....पर प्रोग्राम,टेलीकास्ट होने वाली शाम खुद टी.वी. ऑन करके बैठी थी...और हमें एक पार्टी में जाना था. पतिदेव शोर कर रहे थे..."देर हो  रही है"...और मैं  जानबूझकर कभी बिंदी ढूँढने का अभिनय करती तो कभी मैचिंग कड़े......और पाया  कि नहीं...मेरी तस्वीर  एडिट नहीं की थी.


एक बार  हमलोग हरिद्वार-मसूरी-शिमला की ट्रिप पर गए थे. रुड़की से मैने अपनी मौसी की लड़कियों को भी साथ ले लिया था. शाम को हमलोग मसूरी पहुंचे थे और सडकों पर यूँ ही  घूम रहे थे कि पीछे से एक आवाज़ आई "एक्सक्यूज़ मी" देखा तो आधुनिक परिधान में लिपि-पुती एक लड़की  थीं...मेरे मुड़ते ही एक माइक मेरे सामने कर दिया..."आपसे कुछ सवाल पूछने हैं..." और मेरे कुछ कहने के पहले ही..सवालों की झड़ी लगा दी..."अनु मल्लिक से सम्बन्धित 5 सवाल थे. अब सिर्फ अंतिम सवाल ही याद है..." फिल्मफेयर अवार्ड किस फिल्म के लिए मिला था?'"...मैने कहा "बौर्डर " और उसने माइक नीचे कर पास खड़े कुछ लड़कों से कहा," We have  a  winner here " 
पता नहीं कैसे ,मेरे पांचो  जबाब सही थे.

वो लड़के प्रोडक्शन टीम के थे पर किसी कॉलेज के लड़के जैसे ही लग रहे थे.  उसी झुण्ड में से किसी ने एक बैग से एक ताज निकाला और एक सैश जिसपर लिखा था..."BPL  उस्ताद  " और मुझे पहना दिया . और 15,00 रुपये का चेक भी पकड़ा दिया. अब फिर से माइक सामने था...और मुझसे मेरा  परिचय पूछा गया. फिर उसने अन्नू मल्लिक  की फिल्म का एक गाना गाने के लिए कहा. गाने से रिश्ता बस अन्त्याक्षरी तक ही सीमित है...पारिवारिक महफ़िल में भी नहीं गाती...और टी.वी. पर...नामुमकिन...बहने बढ़ावा दे रही थीं..."अरे दो लाइन गुनगुना दो ना..." पर मेरी ना तो ना...आखिर उस एंकर ने ही सुझाया आप सब मिल कर गा दीजिये...और हमने कोरस में गाया.. "संदेशे आते हैं...." शिल्पी ने सामने  जाकर एक फोटो भो ले लिया.                              
:)              

सारा कुछ दस मिनट के अंदर घट गया....अब मुझे ध्यान आया....कार से देहरादून से यहाँ तक आने में तो बाल बिलकुल बिखर गए हैं..चेहरे पर धूल की परत चढ़ी हुई है.......जींस और खादी के कुरते में  पता नहीं कैसी दिख रही हूँ ...पर शायद खादी के कुरते ने ही उस एंकर को मेरी तरफ आकर्षित किया था .

पतिदेव बच्चों के साथ कुछ आगे चल रहे थे...उनलोगों को  कुछ पता भी नहीं चला. हम सब तेज़ कदमो से उन्हें बताने को भागे...जब उन्होंने  पूछा, "टेलीकास्ट कब होगा..?" तब ख्याल आया हमने तो ये पूछा ही नहीं...फिर वापस भागे...संयोग से वे लोग मिल गए और बताया बस दो दिनों बाद.

अब शाम को मसूरी की उस  घूमती हुई रेस्टोरेंट में बैठकर सारे रिश्तेदारों - सहेलियों को कॉल करने का सिलसिला शुरू हुआ { आप सबसे परिचय नहीं था...नहीं तो  कुछ ब्लॉगर्स  को भी फोन लगाया होता } ससुराल वालों को फोन करने में एक हिचक सी भी थी...उनलोगों ने जींस में मुझे कभी देखा  नहीं था.... . सोचा...बातें बनेंगी...... पर बताना भी था. . प्रोग्राम तो आया ही शकल भी..बहुत ज्यादा बुरी नहीं लग रही थी..... ...बस ये हुआ कि उस प्रोग्राम वालों के पैसे बच गए...क्यूंकि चेक मैं किसी किताब में रखकर भूल गयी.

आईला !!!..मैने शुरुआत कुछ और लिखने  को किया था...और कुछ  और ही लिख गयी...कोई नहीं वो अगली पोस्ट में  

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...