बुधवार, 29 सितंबर 2010

प्लीज़ रिंग द बेल : एक अपील

आज , एक ऐसे संवेदनशील विषय पर लिखने जा रही हूँ, जिसके जिक्र से सब आँखें चुराते हैं और ऐसा प्रदर्शित करते हैं ,मानो ना कभी देखा ,ना सुना हो.

अभी कुछ दिन पहले सलिल जी के ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ी, "पति पत्नी और वो" जिसमे जिक्र था कि कैसे एक पति अपनी पत्नी को सरेआम पीट रहा था और जब उनके बाबूजी ने उस आदमी को एक थप्पड़ मारा तो खुद उसकी पत्नी ने उनका हाथ पकड़ लिया कि "यह उसके घर का मामला है, "

सलिल जी के बाबूजी के प्रति अगाध श्रद्धा  से मन भर उठा क्यूंकि बिरले ही कोई पहल कर के 'यह बात' स्त्री के मुहँ से सुनता है . अधिकाँश लोग यह मान कर ही  चलते हैं कि यह उनके घर का मामला है. बरसो पहले बचपन में देखी एक घटना मानसपटल पर अंकित है . जब पूरे गाँव ने यह सोच कि यह उनके घर की  बात  है, कोई हस्तक्षेप नहीं किया था.

मैं काफी छोटी  थी,दादा जी के पास गाँव गयी हुई थी . यूँ ही गाँव में घूम रही थी कि देखा एक महाशय जी अपनी पत्नी पर अपना पुरुषार्थ दिखा रहें हैं और उसे मारते हुए घर की तरफ लिए जा रहें हैं. मैने पास खड़ी खेतों में काम करने वाली  काकी से पूछा, " कोई रोकता क्यूँ नहीं?" कहने लगी, "ये तो उसके घर की  बात है... ये तो कुछ नहीं, एक दिन बरसात में वह अपनी पत्नी को दौड़ा दौड़ा  कर मार रहा था और आस-पास के सब लोग अपनी खिडकियों से नज़ारा देखते हुए यह प्रार्थना  कर रहें थे कि "हे भगवान!.. उसकी लाज रखना ...उसके कपड़े ना फटें "

उस दिन जो आक्रोश उपजा था यह सुन...आज भी ज्यूँ का त्यूँ है. क्यूँ लोग समझ लेते हैं कि यह उनके घर का मामला है? कई लोगों ने उस पोस्ट पर टिप्पणी की है कि अगर घर का मामला है तो ,घर के अंदर ये मार-पीट करो. यानि कि घर के अंदर अगर पति हाथ उठाये और पत्नी बिना आवाज़ किए  सहती रहें तो सब कुछ ठीक  है? बाहर दुनिया वैसी ही सुन्दर है ?

खैर वह सब एक लम्बे विमर्श  का विषय है. क्यूँ पत्नियां ऐसा कहने पर मजबूर होती हैं.  अधिकाँश मामलो में वे पति के ऊपर आर्थिक रूप से निर्भर  होती हैं. पर यह आंशिक सत्य है. घरेलू हिंसा से शिक्षित, संपन्न, आत्म-निर्भर महिलायें  भी बरी नहीं हैं.उनका  आर्थिक रूप से निर्भर होना भी कोई मायने नहीं रखता. कई मध्यम वर्गीय और उच्च घरों में भी ऐसे दृश्य बदस्तूर चलते रहते हैं. नाम नहीं लिख रही पर काफी लोगों को पता होगा. एक मशहूर उद्योगपति की पत्नी, जो पांच करोड़ रुपये की घड़ी हाथों में पहनती हैं. घरेलू हिंसा की शिकार हैं. कितनी बार पत्रकारों ने उनके गले ,हाथ, चेहरे पर लाल-काले  निशान देखे हैं. मशहूर बोलीवुड हिरोइन का किस्सा भी सबको पता होगा. जिसके  बॉय फ्रेंड ने उसका हाथ जख्मी कर दिया था और चेहरे के निशान को बड़े से  ;डार्क ग्लासेज' से छुपाये और हाथों  में प्लास्टर लगाए वो फिल्म फेयर अवार्ड लेने पहुंची थीं. और उनकी तारीफ़  भी हुई थी क़ि उन्होंने इसे दुनिया के सामने सरेआम स्वीकारा. कल के बड़े स्टार जिनका बेटा भी अब सुपर स्टार के कगार पर है. और पत्नी भी फिल्म-स्टार थीं. पर उनके हाथ उठाने की आदत से तंग  आ एक दिन पत्नी ने पुलिस को बुला लिया. खैर मामला रफा-दफा हो गया और आज भी दोनों मुस्कुराते हुए, फ़िल्मी पार्टी, टी.वी. प्रोग्राम में नज़र आते हैं.

वर्तिका नंदा की ये कविता यहाँ बड़ी सटीक है.

नौकरानी और मालकिन
दोनों छिपाती हैं एक-दूसरे से
अपनी चोटों के निशान
और दोनों ही लेती हैं
एक-दूसरे की सुध भी

 

मर्द रिक्शा चलाता हो
या हो बड़ा अफसर
इंसानियत उसके बूते की बात नहीं।


और यह सब सिर्फ हमारे पिछड़े देश में ही नहीं चलता.विदेशों में भी वहाँ की शिक्षित, आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिलाए भी इसकी शिकार हैं.. एक बार एक बड़े टेनिस स्टार ने अपने इंटरव्यू में स्वीकारा क़ि मैच हारने के बाद ,वह अपना गुस्सा अपनी पत्नी पर निकालता है और उसने कहा था, she dsnt get hurt much as she has fast knees " क्या कहने!! बस ये है क़ि वे इसे शर्म का विषय नहीं समझतीं.पुलिस में शिकायत  भी कर देती हैं और पुलिस तुरंत हरकत में  भी आ जाती है.

हम यहाँ जजमेंटल नहीं हो सकते. ये सब सहने की सबकी अपनी मजबूरियाँ होती हैं, अपने तर्क हैं. जो पुरुष ऐसी अमानवीयता दिखाते हैं. उनकी upbringing   में प्रॉब्लम होती है. बचपन अच्छा नहीं गुजरा होता और उन्हें काउंसिलिंग  की सख्त जरूरत होती है. पर वे कभी मानेंगे ही नहीं क़ि उनके व्यक्तित्व में कोई असंतुलन है.

पर इस पोस्ट को लिखने का उद्देश्य कुछ और है. करीब दो साल  पहले मैने मुंबई में अखबारों में एक मूवमेंट के बारे में पढ़ा था ".प्लीज़ रिंग द बेल".उसमे यह अपील की गयी  थी  क़ि अगर किसी फ़्लैट के अंदर से ऐसी आवाजें आ रही हैं. तो कृपया आप चुपचाप तमाशा ना देखें. घंटी बजाएं. लेकिन आपको उनकी लड़ाई के बीच कोई हस्तक्षेप या किसी की  साइड नहीं लेनी है. इस से झगडा और बढ़ सकता है और फिर लोग वही सदियों पुराना जुमला दुहरा सकते हैं " ये हमारे घर का मामला है?" आपको उस टेंशन को  को बस  defuse  करना है. आप अखबार मांग  लें, या बर्फ मांग लें..या स्क्रू  ड्राइवर...किसी भी बहाने से उस सिचुएशन को टाल दें. अचानक किसी को सामने देख, उसके सामने वो हरकत तो नहीं कर  सकता.और एक बार जब आप थोड़ी देर को बातों में उलझा लेंगे तो उस चरम तनाव के क्षण में कुछ ढीलापन तो आएगा.  ऐसा ही, किसी भी स्थिति में किया जा सकता है. फ़्लैट ना हो....और यह सब नज़रों के सामने चल रहा हो.....तब भी पुरुष को कहीं दूर ले जाया जा सकता है, महिला को किस बहाने से वहाँ से हटाया जा सकता है.

उस वक़्त इसे सुलझाने की  कोशिश तो बेकार ही होगी क्यूंकि कई सारी बातें होती हैं...और जबतक पुरुष इसे खुद गलत नहीं समझता ,सुधार नहीं आ सकता. लेकिन आँखों के सामने या जानकारी में ऐसी घटना हो तो पहल करनी चाहिए. क़ि कम से कम एक महिला उस प्रताड़ना से तो बच सके .और ये सब सिर्फ कोरी बातें नहीं हैं. एक बार मेरी एक फ्रेंड ने किया भी था. इस मूवमेंट की बात पढ़कर  नहीं...अपने अंतर्मन की सुनकर. वो रात में मेहमान को छोड़ने गेट तक आई तो ग्राउंड फ्लोर से ऐसी ही आवाजें आ रही थी. पति-पत्नी ने घंटी बजा दी. थोड़ी देर शांत हो गया,सब कुछ. फिर घंटी बजायी तो पति ने दरवाज खोला. पति ने कुछ बातों में उलझा लिया, उस आदमी की  पत्नी बेडरूम में चली गयी. वह आदमी थोड़ा शर्मिंदा भी दिख रहा था. जब १५-२० मिनट बाद वो लौटे तो उस आदमी का गुस्सा काफी कम हो चुका था.

यह उपाय कितना कारगर है.....कोशिश कितनी कामयाब होगी नहीं कहा जा सकता पर जबतक अमल में नहीं लाया जायेगा , इसकी सफलता -विफलता  का पता कैसे चलेगा ? कम से कम  सोच में यह बदलाव तो आनी शुरू होगी कि यह सिर्फ घर का मामला नहीं.इंसानियत का मामला है. और हस्तक्षेप किया जा सकता है इसलिए हिचकिचाइए मत एंड  Please ring the Bell.

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

बहू और बेटी के बीच का घटता -बढ़ता फासला.

मेरी पिछली पोस्ट सबने बड़े ध्यान से पढ़ी. और काफी मनन करके अपने विचार रखे.सबका शुक्रिया. टिप्पणियों में भी देखा और आपसी चर्चा में भी कई बार लोग कह देते हैं , 'बहू कभी बेटी नहीं बन सकती.' जैसे इस अवधारणा ने गहरी जड़ें जमा रखी हों ,मनो-मस्तिष्क पर. उनलोगों ने अपने आस-पास जरूर ऐसे उदाहरण देखे होंगे जिस से,उनके  ऐसे विचार बने.

परन्तु मैने उन कटु  प्रसंगों के साथ अपने आस-पास कुछ ऐसे उदाहरण भी देखे हैं, जिन्हें अगर ना शेयर करूँ तो मेरा कॉन्शस ही मुझसे सौ सवाल करेगा.

मेरी एक रिश्तेदार, लन्दन से  अपने बेटे बहू के साथ एक महीने के लिए छुट्टियाँ बिताने ,भारत आयीं  थीं. आने के एक हफ्ते बाद ही वे कहीं गिर गयीं और उनके पैर में चोट आ गयी. स्थानीय  डॉक्टर से इलाज कराया और बिना ज्यादा ध्यान दिए,पेन किलर के सहारे रांची,पटना, कलकत्ता, बैंगलोर, घूमती रहीं. लन्दन जाने से पहले उनके बेटे ने सोचा एक बार मुंबई में चेक-अप करवा लूँ. यहाँ के डॉक्टर ने बोला तुरंत ही सर्जरी करनी पड़ेगी, अंदर  नस फट गयी है और जख्म हड्डी तक पहुँच गया तो गैंग्रीन  हो जायेगा और पैर ही काटना पड़ेगा. दो दिन बाद ही  बॉम्बे हॉस्पिटल में सर्जरी हुई .पर बेटे की छुट्टी नहीं थी.वो लन्दन में ताज होटल में सेकेण्ड इन कमांड है. कुछ बड़े डेलिगेट्स रुकने वाले थे.उसे तुरंत जाना पड़ा. दोनों बेटियों के स्कूल खुल गए,उन्हें भी जाना पड़ा. आज पंद्रह दिन हो गए हैं, सर्जरी के हफ्ते भर  बाद स्किन ग्राफ्टिंग की गयी और अभी भी डॉक्टर कुछ नहीं बता रहें,कब डिस्चार्ज करेंगे? बहू अकेले यहाँ सास की  सेवा में जुटी है. दोनों बेटियाँ वहाँ रेडी टु  इट ,ब्रेड,मैगी के सहारे गुजारा कर रही हैं. होटल की नौकरी ऐसी है कि जब वे मुंबई ताज में थे ,सुबह चार बजे घर आया करते थे.लन्दन में भी सुबह के गए देर रात घर आते हैं.

इकलौता  बेटा है,ना कोई बहन ना भाई. लन्दन जाकर भी कोई रिश्तेदार बच्चों का ख्याल नहीं रख सकता ,ना वहाँ काम करने वाली बाई की सुविधा है. यहाँ भी, हॉस्पिटल हमारे घर से काफी दूर है. और सहायता ऑफर करने पर भी उनलोगों ने विनम्रता  से मना कर दिया. बेटियाँ अकेले स्कूल जाती हैं,सूने घर में लौटती हैं.खुद अपना ख्याल रख रही हैं.यहाँ' ताज'  ने एक कमरा दिया है जहाँ,बहू सिर्फ फ्रेश होने और कपड़े लौंड्री में देने के लिए जाती है. रात में भी वहीँ पतले से अटेंडेंट के लिए रखे बेन्चनुमा कॉट पर सोती है, सास के जोर देने पर भी ताज में नहीं जाती. जबकि उनके पैर पर बस प्लास्टर है..बाकी सब नॉर्मल है. बेड के पास कॉल बटन है...जब चाहे नर्स को बुला सकती हैं.

अब कोई भी बेटी इस से बढ़ कर क्या करती? जबकि बहू का प्रदेश और भाषा  दोनों अलग है और सास को ये मलाल भी था कि बेटे ने अपनी जाति में शादी नहीं की. उनकी  नौ वर्षीया  पोती कहती हैं ,"मम्मा, प्लीज़ डोंट माइंड पर मैं दादी को आपसे थोड़ा ज्यादा प्यार करती हूँ " दादी भी कह रही थीं, सामने खाना आता है तो आँखों में आँसू आ जाते हैं कि वहाँ बच्चे ब्रेड पर गुजारा कर रहें हैं. अब बहू ने बच्चों और दादी को पास आने दिया तभी तो ये स्नेह पनप सका.

मेरी ही बिल्डिंग में रहने वाली  एक सहेली है. तीन बेडरूम का फ़्लैट लिया कि ससुर साथ रह सकें. ससुर जी को ड्रिंक की आदत थी. बेटे का ट्रांसफर दूसरी जगह हो गया तो बहू की रोक-टोक अच्छी नहीं लगी और पास के ही अपने फ़्लैट में रहने चले गए. खूब बदपरहेज़ी की और तबियत खराब रहने लगी. रात के तीन बजे फोन करते और ये गाड़ी लेकर अकेली उन्हें देखने जाती. एक बार पुलिस ने भी रोक लिया था. मेरे कहने पर कि 'कम से कम हमें साथ जाने को बुला  लिया करो,' कहने लगी, ये तो रोज का किस्सा है,अक्सर  दस बजे बारह बजे फोन कर देते हैं, कि" तबियत ठीक नहीं " ससुर को अकेले भी रहना था और अटेंशन भी चाहिए थी. दो साल  तक ये सिलसिला चलता  रहा. बाद में तीन महीने हॉस्पिटल में रहने के बाद  उन्होंने  अंतिम साँसे  लीं. पूरे समय बहू ने अकेले उनकी देखभाल की. बेटा बस एकाध दिन की छुट्टी लेकर आ पता. यहाँ तो इसी  कॉलोनी में उनकी बेटी भी रहती है पर उसने सारी जिम्मेवारी भाभी पर छोड़ रखी थी. बहू ने तो बेटी से भी बढ़कर अपना कर्तव्य निभाया.

एक और सहेली है उसकी सास पहले उसके साथ ही रहती थीं.. ननद को बेटी हुई तो उसकी देखभाल करने अपनी बेटी के पास चली गयीं. ननद नौकरी करती है. ननद की बेटी स्कूल जाने लगी है पर ननद ने  उसकी सारी जिम्मेवारी माँ पर छोड़ रखी है और बेटी के जन्म के पहले जैसी ही लापरवाह रहती है. माँ उसे अपनी बहू का उदाहरण देती है. और बहू से बेटी की शिकायत भी करती है. ननद-भाभी भी अच्छी दोस्त हैं.ननद भी कहती है, 'माँ मेरी माँ कम सास ज्यादा है'. ननद का पति भी कुछ नहीं कहता ,यह सोच कि यह माँ बेटी  के बीच का मामला है. यही अगर  बेटा होता तो अपनी पत्नी को सौ घुडकियां दे चुका होता कि "मेरी माँ क्यूँ  रखे,बच्ची का.ख्याल ?" यहाँ भी माँ को बेटी से ज्यादा बहू पर भरोसा है.

माँ-बेटी में मजबूत इमोशनल बौंड होता है.पर अगर रिश्तों को प्यार और समझदारी से निभाया जाए तो बहू के बेटी की जगह लेते  देर नहीं लगती. और मुझे लगता है इसमें ज्यादा समझदारी, सास से ही अपेक्षित है क्यूंकि बहू एक तो कम उम्र की होती है, अपना घर छोड़ ,नए परिवेश में आती है. अगर उसे अपनापन मिले तो उसे उस परिवार में शक्कर की तरह घुलने में देर नहीं लगती. पिछली पोस्ट पर शुभम जैन की टिप्पणी पढ़कर इतना अच्छा लगा, "अगर मम्मी नहीं होतीं तो पति के साथ रहना मुश्किल हो जाता" :)

फिर भी ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं,ज्यादा घरं में मन-मुटाव ही देखने को मिलता है. अब इसकी वजह पति और बेटे की अटेंशन पाने की खींचतान होती है या फिर किचन पर  वर्चस्व का मुद्दा. हर घर का  अलग किस्सा होता है.कई बार तो सास-ससुर की उपेक्षा करती बहू को देख,एक ख्याल आता भी है क्या इनलोगों ने भी उसकी शादी  की शुरूआती दिनों में उसे सताया था. क्यूंकि हर महिला इतनी उदारमना नहीं होती कि सबकुछ भुला दे. वही है कि कांच से रिश्ते हैं, बहुत समभाल  कर निभाने होते हैं, जरा सी तेज धूप में भी चटख जाते हैं

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ के...

यह शिखा की पोस्ट का एक्सटेंशन भर है. विदेशों में वृद्धों के अकेलेपन की बातें पढ़ ,अपने देश में वृद्धों की अवस्था का ख्याल आ गया. विदेशों में बच्चों के व्यस्क होते ही ,उनसे अपना घर अलग बनाने की अपेक्षा की जाती  है. हाल  में ही एक अंग्रेजी फिल्म देखी,जिसमे एक लड़के का सबलोग बहुत मजाक उड़ाते हैं और हर लड़की, उसके साथ शादी के लिए सिर्फ इसलिए इनकार कर देती है क्यूंकि  वह अब तक अपने  माता-पिता के साथ रहता है. उसे अपने पैरेंट्स के साथ रहना पसंद है पर माता-पिता चिंतित होकर एक काउंसलर हायर करते हैं. जो उस लड़के के साथ प्रेम का अभिनय कर उसे ,अकेले अपना घर बनाने पर मजबूर कर दे. वहाँ इस तरह की प्रथा है फिर भी, बुढापे में अकेलापन खलता है क्यूंकि युवावस्था तो पार्टी, डांस, बदलते पार्टनर,घूमने फिरने,बियर में कट जाती है. पर बुढापे में शरीर साथ नहीं देता और अगर उसपर जीवनसाथी भी साथ छोड़ दे तो अकेले ज़िन्दगी काटनी  मुश्किल हो जाती  है.

वहाँ जब अकेले रहने की आदत के बावजूद बुढापे में अकेलेपन  से त्रस्त रहते हैं  तो हमारे देश में वृद्धों के लिए अकेले दिन बिताना कितना कष्टदायक है जब उनका बचपन और युवावस्था तो भरे-पूरे परिवार के बीच गुजरा हो.

पहले संयुक्त परिवार की परम्परा थी. कृषि ही जीवन-यापन का साधन था. जो कि एक सामूहिक प्रयास है. घर के हर सदस्य को अपना योगदान देना पड़ता है.अक्सर जमीन घर के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति के नाम ही होती थी. और वो निर्विवाद रूप से स्वतः ही घर के मुखिया होते थे.इसलिए उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी. घरेलू कामों में उनकी पत्नी का वर्चस्व होता था.

पर घर से बाहर जाकर नौकरी करने के चलन के साथ ही संयुक्त परिवार टूटने लगे और रिश्तों में भी विघटन शुरू हो गया. गाँव में बड़े-बूढे अकेले पड़ते गए और बच्चे शहर में बसने लगे. अक्सर शहर में रहनेवाले माता-पिता के भी बच्चे नौकरी के लिए दूसरे शहर चले जाते हैं और जो लोग एक शहर में रहते भी हैं वे भी साथ नहीं रहते. अक्सर बेटे-बहू, माता-पिता के साथ रहना पसंद नहीं करते.या कई बार माता-पिता को ही अपनी स्वतंत्र ज़िन्दगी में एक खलल सा लगता है.

हमारी बिल्डिंग में एक नवयुवक ने फ़्लैट ख़रीदा और अपने माता-पिता के साथ रहने आ गया. बड़े मन से उसने अपने फ़्लैट की फर्निशिंग करवाई. मौड्यूलर  किचन ...आधुनिक फर्नीचर..ए.सी...आराम और सुविधा की हर एक चीज़ जुटाई..हमलोग देखते और कहते भी, 'आखिर घर को कितने सजाने संवारने के बाद शादी करेगा.' और दो साल बाद घर पूरी तरह सेट कर लेने के बाद उसने शादी की. एक साल के अंदर ही बेरहम नियति ने अपने रंग दिखा दिए और पिता  अचानक दिल का दौरा पड़ने से चल बसे.

अब घर में उसकी माँ और बेटा, बहू थे. बहू भी नौकरी वाली  थी.पर पता नहीं ,सास-बहू दोनों के बीच क्या हुआ ,छः महीने में ही वह किराए का घर ले, थोड़ी दूर रहने चला गया. बेटा,बिना नागा रोज शाम को माँ से मिलने आता है. अब तो एक प्यारी सी बेटी का पिता है.उसे भी लेकर आता है पर बहू नहीं आती. सारा दिन उसकी माँ अकेले रहती हैं. कहीं भी नहीं आती-जातीं. पता नहीं कैसे दिन गुजारती हैं? उनकी ही आँखों का जिक्र मैने अपनी, इस कविता की भूमिका में किया था. आखिर ऐसा क्या हो गया कि सामंजस्य नहीं हो पाया? बहू सुबह आठ बजे के गए रात के आठ बजे आती थी. सिर्फ वीकेंड्स ही बिताने थे साथ..वह भी नहीं जमा. किसकी गलती ,कौन दोषी...नहीं कहा जा सकता. पर अकेलापन तो इन बुजुर्ग महिला के हिस्से ही आया. बेटी को बहू ,क्रेच में कहीं छोडती है. अगर दोनों साथ रहतीं तो उसकी देख-रेख में उनका दिन अच्छा  व्यतीत हो जाता.

एक पहचान का  युवक भी अपने माता-पिता का इकलौता बेटा है. अच्छी नौकरी में है. फ़्लैट खरीद लिया है. चीज़ें भी जुटा ली हैं. शादी के प्रपोज़ल्स आ रहें हैं.पर बात एंगेजमेंट तक आते आते रह जाती है.लडकियाँ कुछ दिन बात-चीत करने के बाद इशारे में कह देती हैं कि सास -ससुर के साथ रहना गवारा नहीं होगा.आगे  पता नहीं कोई लड़की तैयार हो भी जाए तो फिर उक्त युवक जैसी समस्या ना आ जाए.

पर कई बार बुजुर्ग भी अपनी ज़िन्दगी अकेले बिताना चाहते हैं. पोते-पोतियों की देखभाल  को  एक अतिरिक्त भार की तरह समझते हैं. उन्हें लगता है, अपने बच्चों की देख-भाल  की,घर संभाले अब क्या सारी ज़िन्दगी यही करें. एक आंटी जी हैं,पटना में. बेटा, बड़े मनुहार-प्यार से माँ को अपने पास ले गया. बेटे- बहू..पोते पोती सब इज्जत-प्यार देते थे.पर कहने लगीं.वहाँ वे बस एक केयर टेकर जैसी बन कर रह गयी थीं.(बहू भी नौकरी पर जाती थी ) पोते-पोतियों को उनके हाथ का बना खाना अच्छा लगता तो सारा समय  किचन में ही बीतता था.अब बड़े से बंगले में अकेली रहती हैं. सत्संग में जाती हैं. अक्सर गायत्री पूजा में शामिल होती हैं और अपनी मर्जी से अपने दिन बिता रही हैं.

एक पोस्ट (गीले कागज़ से रिश्ते...लिखना भी मुश्किल, जलाना भी मुश्किल)पहले भी मैने लिखी थी कि सास की बहू से नहीं जमी और बहू अलग मकान लेकर अपने बच्चों के साथ रहने लगी. दोनों पति-पत्नी अकेले दिन गुजार रहें थे.घर में  शान्ति छाई रहती. .सास की मृत्यु के बाद ससुर की देखभाल  के लिए बहू वापस इस घर में आकर रहने लगी और घर में रौनक हो गयी. दिन भर बच्चों की चहल-पहल से घर गुलज़ार लगता. मुझे ऐसा लगता था पर अब सोचती हूँ,क्या पता उन्हें अपना शांतिपूर्ण जीवन ही ज्यादा पसंद हो.

कई बार यह भी देखा है कि शुरू में सास ने एक आदर्श सास की इमेज के प्रयास  मे बहू को इतना लाड़-प्यार दिया कि बहू ने घबरा कर किनारा कर लिया. एक आंटी जी,बहू को बेटी से भी  बढ़कर मानतीं. उसे तरह -तरह के टिफिन बना कर देतीं. ऑफिस से आने पर कोई काम नहीं करने देतीं. सारे रिश्तेदारों में उसकी बड़ाई करती नहीं थकतीं. फिर पता नहीं क्या हुआ... कुछ दिनों बाद बहू से बात-चीत भी नहीं रही. और जाहिर है बहू अलग रहने चली गयी और आना-जाना भी नहीं रहा.
एक किसी मनोवैज्ञानिक द्वारा लिखे आलेख में पढ़ा था कि ऐसा करने पर बहू के  अवचेतन मन में लगने लगता है कि उसकी सास उसकी माँ की जगह लेने की कोशिश कर रही हैं. जबकि उसकी अपनी माँ तो है ही. और इसलिए उसका मन विद्रोह कर उठता है.

यह अजीब दुविधा की स्थिति है. बिलकुल कैच 22 सिचुएशन. प्यार दो तो मुसीबत,ना दो तो मुसीबत. ये रिश्ते तलवार की धार पर चलने के समान हैं. जरा सी गफलत हुई और रिश्ते लहू-लुहान हो उठे, कई बार तो क़त्ल ही हो जाता है रिश्तों का.

यहाँ महानगरों में एक चलन देख रही हूँ. अक्सर बेटे या बेटियाँ  माता-पिता का पुराना घर बेच कर , उन्हें अपनी बिल्डिंग में या बिल्डिंग के पास ही एक छोटे से फ़्लैट में शिफ्ट करवा दे रहें . दोनों पक्ष की आज़ादी भी बनी रहती है और जरूरत पड़ने पर माता-पिता की भी देखभाल हो जाती है और बेटे-बेटियां भी जरूरत पड़ने पर बच्चों को अकेला घर मे छोड़ने के बजाय माता-पिता के पास छोड़ देते हैं यह लिखते हुए रेखा और राज-बब्बर की फिल्म 'संसार' (शायद यही सही नाम है ) याद हो आई जिसमे कुछ ऐसा ही हल बताया गया था.

पर यह सब तो मध्यमवर्गीय परिवार की बातें हैं जहाँ कम से कम बुजुर्गों को आर्थिक और शारीरिक कष्ट नहीं झेलना पड़ता (अधिकतर, वरना ..अपवाद तो यहाँ भी हैं,) लेकिन निम्न वर्ग में तो रिश्तों का बहुत ही क्रूर रूप देखने को मिलता है.वहाँ लोकलाज की भावना भी नहीं रहती.आज ही वंदना दुबे अवस्थी की यह पोस्ट पढ़, रिश्तों पर से विश्वास ही उठता  सा लगा.

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

गणपति बप्पा मोरया...



मुंबई आने से पहले ही, यहाँ के सबसे बड़े त्योहार गणेशोत्सव के बारे में काफी कुछ सुन रखा था. जब मुंबई आए तो हमने सोचा,जैसे उत्तर भारत में दीपावली के समय लक्ष्मी गणेश की मूर्ति लाते हैं और उसकी पूजा करते हैं ,वैसे ही यहाँ भी सबलोग, गणेश जी  की मूर्ति लाकर पूजा करते होंगे. और हमने भी उनकी मूर्ति लाकर पूजा करने की सोची. जैसे जैसे गणेशोत्सव का दिन नज़दीक आने लगा, हमें पता चला,हर घर में उनकी मूर्ति नहीं लाते. बल्कि मराठी लोगों के यहाँ तो खानदान में जो सबसे बड़ा हो, उनके यहाँ ही सबलोग जमा होते हैं और मूर्ति बिठाई जाती है. कई घरों में तो एक साल एक भाई के यहाँ पूजा की जाती है तो दूसरे साल दूसरे भाई के यहाँ.

बिलकुल शादी जैसा महौल होता है. सारे रिश्तेदार इकट्ठे होते हैं. आस-पास के खाली फ़्लैट में उन्हें ठहराया जाता है कुक रखे जाते हैं.काफी धूम रहती है. कई  लोग गाँव भी चले जाते हैं.पर हमने सोच लिया  था तो मूर्ति लेकर आए और पंडित को बुलाकर पूजा भी करवाई. जबकि मराठी लोग खुद ही पूजा कर लेते हैं. जब लोग दर्शन के लिए आने लगे तो पूछना शुरू किया,"आपने कितने साल तक पूजा करने की मन्नत की है?" लोग दो,पांच या सात साल की मन्नत करके ही पूजा करते हैं. और पतिदेव ने कह दिया, "जबतक मुंबई में रहेंगे,पूजा करेंगे". उस समय तक कुछ भी तय नहीं था कि स्थायी रूप से कहाँ रहेंगे. पतिदेव का दिल्ली... विदेश...मुंबई...भ्रमण जारी था.पर दो साल  बाद ही गणपति बप्पा ने अपनी छत भी दे दी और हम यहीं बस गए. यहाँ लोगों के पूछने का तरीका  भी अनोखा है. कोई ये नहीं पूछता,"आप गणपति की पूजा करते हो...या मूर्ति लाते हो?"लोग पूछते हैं.."आपके यहाँ गणपति आते हैं?" और लोग दर्शन के लिए निमत्रण का इंतजार नहीं करते. अगर उन्हें पता चल जाता है कि इस घर में पूजा होती है तो खुद ही चले जाते हैं.

एक महीना पहले ही जिसके यहाँ से आप मूर्ति लेते हैं उनकी चिट्ठी आ जाती है कि आप आकर मूर्ति बुक कर दें. फिर गणेशोत्सव के एक दिन पहले अक्सर रात में ही लोग मूर्ति अपने घर पर लेकर आते हैं. करीब करीब हर घर में ढेरो रिश्तेदार जमा होते हैं,इसलिए एक मूर्ति के लिए करीब करीब दस-बारह लोग जरूर जाते हैं. अक्षत,कुंकुम,नारियल से गणपति की पूजा कर, ढोल,मंजीरे के साथ उनकी   जयजयकार करते  हुए मूर्ति लेकर घर आते हैं यह सिलसिला पूरी रात चलता है.घर  के  दरवाजे पर भी, कुंकुम लगा , आरती की  जाती है और गरम पानी दूध से मूर्ति लाने वाले का पद-प्रक्षालन  किया जाता है. शायद यह भावना हो कि गणपति को लाने वाले के पैर दूध से धोए जाएँ.

दूसरे दिन सजे हुए मंडप में गणपति की स्थापना की जाती है .और दो दिन तक करीब करीब सारे जान पहचान वाले गणपति दर्शन को जरूर आते हैं. अपनी बिल्डिंग वाले लोग तो रात के बारह बजे भी आते हैं.क्यूंकि दिन में अक्सर उन्हें दूर दोस्तों या रिश्तेदारों के यहाँ जाना होता है. सार्वजनिक पंडाल में तो ग्यारह दिन तक के लिए मूर्ति रखी जाती है और फिर ग्यारहवें दिन,अनंत चतुर्दशी के दिन मूर्ति विसर्जित की जाती है.पर घरं में अक्सर लोग डेढ़ दिन के लिए ही रखते हैं. कुछ लोग ,पांच दिन या सात दिन के लिए भी रखते हैं.

मूर्तियाँ अक्सर तालाब या समुद्र में विसर्जित की जाती हैं. किन्तु  पर्यावरण का ख़याल कर आजकल कई जगह कृत्रिम तालाब का निर्माण किया जाने लगा  है. वैसे हमलोग  शुरू से ही एक मंदिर के प्रांगण में बने कृत्रिम तालाब में ही मूर्ति विसर्जन के लिए जाते हैं. मंदिर से काफी पहले ही गाड़ी पार्क कर पैदल ,नंगे पाँव मूर्ति लेकर जाना होता है. पूरे रास्ते पर ढोल-ताशों के साथ लड़के-लडकियाँ,औरतें-पुरुष सब नाचते गाते,जयजयकार करते हुए चलते हैं. बहुत ही रोमांचित कर देने वाला नज़ारा होता है.

मंदिर में  भीड़ तो बहुत होती है पर व्यवस्था इतनी अच्छी कि पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं लगते. लम्बी लम्बी मेजें बिछी होती हैं. सबलोग अपने घर से लाये गणपति को वहाँ रखते हैं और एक बार फिर आरती की जाती है और नारियल फोड़ कर उसका पानी गणपति के ऊपर डाला जाता है.शायद प्रतीकात्मक विसर्जन हो यह.

परिवार का एक सदस्य मूर्ति लेकर एक अलग रास्ते से तालाब की  तरफ जाता है. बाकी लोग दूसरी  तरफ से विसर्जन देखते हैं.पानी में कई स्वयंसेवक पहले से ही खड़े होते है वे दूर लेजाकर मूर्ति का विसर्जन  कर देते हैं. उस दिन सबसे ज्यादा यह नारा गूंजता है " गणपति बप्पा मोरया..... पुढच्या वर्षी लाउकर  आ "(मेरे गणपति बाबा,अगले वर्ष जल्दी आना )

एक दिन पहले ईद और दूसरे दिन इतवार ने इस गणपति को कुछ खास बना दिया. पूरा मुंबई ही त्योहार के खुशनुमा माहौल  में डूबा था. मेरे घर पर भी सबकी छुट्टियां होने से मेरा काम काफी  आसान हो गया. इस बार तो बच्चों ने ऐलान कर दिया, 'हमलोग  ही सारा काम करेंगे' और सच में गणपति बप्पा को घर लाने से लेकर मंडप की सजावट, पूजा, विसर्जन...सबकुछ बच्चों ने ही किया. बस ये आस्था हमेशा बनी रहें.













मंगलवार, 7 सितंबर 2010

इरफ़ान पठान की प्यारी मुस्कान के पीछे छुपा सच्चा दिल

आजकल टी.वी. और अखबारों में एक ही खबर सुर्ख़ियों में है...'मैच फिक्सिंग '

पाकिस्तान के खिलाड़ियों की छुपी कारस्तानियाँ जग-जाहिर हो रही हैं. ऐसे में जब किसी खबर पर नज़र पड़ती है कि किसी खिलाड़ी ने प्रलोभन को कैसे ठुकराया  तो मन खुश हो जाता है...और उस पर वो खिलाड़ी भारतीय हो और फिर पसंदीदा इरफ़ान पठान  हो...फिर तो क्या बात है.

 MId Day अखबार के रविवारीय संस्करण में एक खबर पढ़ी. जिसे यहाँ बांटने का मन हो आया.

मोहम्मद आसिफ एवं इरफ़ान पठान में कई सारी  बातें सामान्य हैं. दोनों ही समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से हैं. इरफ़ान ने बड़ौदा की गलियों में क्रिकेट खेलना सीखा और आसिफ ने शेखुपुरा जैसे छोटे से शहर में. दोनों ने अपनी मेहनत, लगन और प्रतिभा के बल पर अपने देश की राष्ट्रीय टीम में जगह पायी. लेकिन समानताएं यहीं समाप्त हो गयीं.

आसिफ, ने जहाँ 'मजहर माज़ीद' के दिए लालच के सामने घुटने टेक दिए. (दरअसल घुटने नहीं...अपने पाँव बढ़ा दिए नो बॉल  के लिए :)) वहीँ इरफ़ान खान ने अपने पैर मजबूती से जमीन पर ही जमाये रखे (और पौपिंग क्रीज़ के अंदर  भी ) और किसी भी तरह के प्रलोभन की तरफ देखने से भी इनकार कर दिया.

ICC के अनुसार जब इरफ़ान पठान लन्दन में थे. एक अजनबी  व्यक्ति हमेशा, उनसे होटल की लौबी में मिलने आता और खुद को उनका अनन्य प्रशंसक बताता. अक्सर "मैच फिक्सर ' किसी भी खिलाड़ी को अप्रोच करने का यही तरीका अपनाते हैं.

कुछ दिनों की 'हलो', 'हाय'  के बाद उक्त प्रशंसक ने इरफ़ान को क्रिकेट से सम्बंधित बहुत सारी सामग्री ,जूते, क्रिकेट पैड, ग्लब्स वगैरह भिजवाये जो यूरोपियन मार्केट के हिसाब से भी कई लाख के थे. और साथ में यह सन्देश भेजा कि 'एक प्रशंसक की तरफ से यह एक सप्रेम  भेंट है'

इरफ़ान यह देख बिलकुल घबरा गए और तुरंत ही यह बात एक सीनियर खिलाड़ी को बतायी. उस सीनियर खिलाड़ी  ने उन्हें यह बात , टीम के मैनेजर को रिपोर्ट करने को कही. और 'टीम मैनेजर' ने इसकी रिपोर्ट ICC को कर दी. इरफ़ान पठान ने वह सारी भेंट वापस कर दी. ICC की anti corruption unit को यह रिपोर्ट देने  के बाद क्या कार्यवाही की गयी.यह प्रकाश में नहीं आया. पर यह तो सच है इरफ़ान पठान की ईमानदारी ने उन्हें एक भयंकर दलदल में फंसने से बचा लिया वरना यही  सब कुछ होता  जो  आज उन खिलाड़ियों एक साथ हो रहा है.

'मिड डे' अखबार ने ICC की anti corruption unit को इस सम्बन्ध में एक मेल भेजा पर उनलोगों ने कोई भी जानकारी  देने से इनकार  कर दिया. क्यूंकि मामले की गोपनीयता बनाए रखनी होती है.

इरफ़ान पठान अभी सिडनी में अपनी एक चोट   का इलाज़ करवा रहें हैं .BCCI ने ही भेजा है उन्हें.उनके CT scan और MRI रिपोर्ट देख Dr. John Orchard  ( sports physician ) ने भारतीय टीम के Physio (Paul Close ) को बताया कि  इरफ़ान पठान को इलाज़ के लिए कुछ दिन और सिडनी में  रहना पड़ेगा. इरफ़ान पठान ने इस घटना को अस्वीकार नहीं किया पर आगे कुछ बताने से  यह कर इनकार कर दिया कि इतनी दूर से फोन पर बताना संभव नहीं और उन्हें कुछ बताने से पहले BCCI की  सलाह भी लेनी पड़ेगी.

आगे जो भी कार्यवाई हुई हो लेकिन ,इरफ़ान पठान ने लालच के सामने सर नहीं झुका कर हम भारतीयों का सर जरूर गर्व से ऊँचा कर दिया है.

(वैसे इरफ़ान के लिए यह ऑस्ट्रेलिया प्रवास , रुचिकर ही होगा क्यूंकि उनकी मंगेतर 'शिवानी देव' ऑस्ट्रेलिया की ही रहने वाली हैं और दोनों बहुत जल्द ही बड़ौदा में विवाह सूत्र में बंधने वाले हैं )

(कृपया अपनी प्रतिक्रिया  में किसी देश विशेष  को भला-बुरा कहने से परहेज़ करें )

शनिवार, 4 सितंबर 2010

'फिल्म' सी ही रोचक उसे देखने की कहानी

 जब अपनी सहेली के साथ ,'बरसात का एक दिन' गुजारा था...और उन यादों को यहाँ पोस्ट में बाँटा भी था, तभी उस जैसे ही गुजरे एक रोचक दिन की याद हो आई थी, अगली  पोस्ट ही लिखने की सोची थी पर बीच में ये फिल्म उड़ान, राखी,ओणम आ गयी....अभी भी गणपति की तैयारियों में व्यस्त हूँ फिर भी कुछ ना लिखूं तो खालीपन सा महसूस होता है (और कहीं आपलोग इस ब्लॉग का रुख ही ना भूल जाएँ... ये डर भी है :)  )

दो,तीन साल पहले की बात है...दोनों बेटों को स्कूल की तरफ से पिकनिक पर जाना था. उनकी तैयारियाँ चल रही थीं. पतिदेव घर आ चुके थे और अपने प्रिय सोफे  पर विराजमान हो टी.वी. पर नज़रें जमाये बैठे थे. उनकी नज़रों का अनुसरण करते हुए देखा तो पाया उनकी नज़रें 'ऐश्वर्या राय' पर जमी हैं. 'जोधा अकबर' का प्रोमो चल रहा था. मैने मौके का फायदा उठाया और पूछ डाला,"ये फिल्म देखनी है?"
"हूँ"
अब पति लोगों की इस 'हूँ' का अर्थ कुछ भी हो सकता है. या तो ये, कि 'बात सुन ली गयी है' या कि 'सोचेंगे' या 'हाँ' भी हो सकता है. तभी बेटा कुछ पूछने आ गया और मैं भी उसके साथ चली गयी.फिर सब कुछ भूल गयी.

दूसरे दिन दोनों बेटे सुबह साढ़े छः बजे ही चले गए और शाम छः के पहले नहीं आनेवाले थे. पूरे दिन का समय था मेरे पास. उन दिनों ब्लॉग्गिंग भी नहीं करती थी वरना कहानी की एकाध किस्तें ही लिख डालती. ग्यारह बजे के आस-पास एक सहेली का फोन आया जो कुछ महीने पहले काफी दूर शिफ्ट हो गयी थी. उसके बच्चे भी स्कूल पिकनिक पर गए थे.(जनवरी, फ़रवरी  यहाँ पिकनिक का मौसम होता है ). हम दोनों काफी दिनों से नहीं मिले थे. दोनों का एक दूसरे को अपने  घर बुलाने का सिलसिला शुरू हो गया. फिर हमने सोचा, एक चहारदीवारी से निकल दूसरी में जाने का कोई मतलब नहीं है. और अचानक उसने पूछा, "जोधा अकबर देखने  चलें? मुझे यहाँ अभी कम्पनी नहीं मिल रही." और मैं तैयार. जल्दी से अखबार निकाले गए और दोनों के घर से जो थियेटर ,पास था. वहाँ जाना तय किया. पतिदेव को फोन लगाया तो कनेक्ट नहीं हुआ.( हमेशा की तरह किसी मीटिंग में व्यस्त होंगे.) पंद्रह मिनट में तैयार हो हम थियेटर भी पहुँच गए. टिकट भी मिल गयी तो सुकून आया.

हम, काफी दिनों बाद मिले  थे तो जाहिर है फिल्म देखने से ज्यादा हम अपनी बातों में मगन थे. आस-पास बैठे मुंबई के दर्शकों को भी कठिन उर्दू शब्दों से भरी इस फिल्म से ज्यादा रोचक शायद हमारी बातें लग रही थीं .क्यूंकि किसी ने नहीं टोका. कभी अपनी आवाज़ जरूरत से ज्यादा तेज़ पाकर हम खुद ही चुप हो जाते.

फिल्म ख़त्म  होने के बाद, 'बरिस्ता ' का एक कप कॉफी का आमंत्रण ठुकराना संभव नहीं था. राज भाटिया जी और सतीश पंचम जी शायद इस बार हमें महाकंजूस की उपाधि से नवाज़ें क्यूंकि हमने एक ही प्लेट 'सिज़्लिंग ब्राऊनी' शेयर किया. अब असर हो ना हो पर कैलोरी का ध्यान तो रखना ही पड़ता है. वैसे भी  उनलोगों के टोकने पर ही मेरा ध्यान गया कि सचमुच शॉपिंग , फिल्म के साथ हम सहेलियों का खाने -पीने पर बहुत कम ध्यान रहता है. पर हाँ...महीने दो महीने में सब मिलकर लंच के लिए  जरूर जाते हैं और तब सिर्फ लंच ही करते हैं (महिलायें हमेशा organized  होती हैं. मिक्स नहीं करती चीज़ों को :) )

बच्चों के वापस आने से पहले हम अपने अपने घर पहुँच गए. गन्दी यूनिफॉर्म, गंदे जूतों, ढीली टाई,बिखरे बाल और अनछुई टिफिन के साथ बच्चे वापस आए. उनकी उत्साह से भरी बातें सुनने में व्यस्त थी कि पतिदेव ने प्रवेश किया और आते ही अनाउंस किया, "कल की 'जोधा-अकबर'  की चार टिकटें बुक कर दी हैं."

अभी तक तो मैं किसी को बता भी नहीं पायी थी कि मैने यह फिल्म देख ली है. और मैने होठ सी लिए.  लौटते समय, कार में जब मैने बताया कि मैने तो एक दिन पहले ही यह फिल्म देख ली थी. तो  बच्चे और पतिदेव आश्चर्य से मुझे घूरने लगे  कि ' चार घंटे की इतनी स्लो फिल्म ,दो दो बार झेलने की हिम्मत मुझे  कैसे हुई?' अब उन्हें क्या पता कि पहली बार तो बस हम बातें ही करते रहें. कितने सारे डायलॉग  और प्रसंग नज़रों से छूट गए थे,जिन्हें इस बार ध्यान से देखा.

पर इस से भी ज्यादा मजेदार वाकया, मेरी सहेली वैशाली के साथ हुआ. हमारे ग्रुप में बाकी सबने यह फिल्म अपनी बहन..कोई दूसरी सहेली या फिर अपने पति के साथ देख ली थी (ऐश्वर्या के नाम पर कईयों के पति मेहरबान हो गए थे :)). वैशाली ने पास में रहने वाली अपनी ननद से चर्चा की तो उन्होंने भी कहा, "हाँ देखते हैं" पर कुछ निश्चित नहीं हुआ था.

और एक दिन उसकी दिल्ली से आई एक सहेली ने फोन किया और साथ में यह फिल्म देखने का आग्रह किया. वैशाली भी उसके साथ 3 से 6 का शो देखने  चली गयी. अभी फिल्म देखकर निकली ही थी कि उसकी ननद का फोन आया कि उन्होंने , 9 से 12 , नाईट शो की टिकटें बुक कर दी हैं. वैशाली ने  मुझे फोन मिलाया और बताया कि उसने तो कपड़े तक नहीं बदले. घर आकर  कुछ काम निपटाए और उसी ड्रेस में दुबारा चार घंटे की फिल्म देखने चली गयी.पर उसने भी दूसरी बार ही ध्यान से देखा, पहली बार तो गप्पें ही चल रही थीं.

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...